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साधक आत्मदर्शन के लिए सर्वतोभावेन समर्पित होता है। अतः शारीरिक मूर्छा से ऊपर उठना भेद-विज्ञान की क्रियान्विति है। शरीर और आत्मा के मध्य युद्ध चल रहा है। दोनों के बीच युद्ध-विराम की स्थिति का नाम ही उपवास है। जीवन, जन्म एवं मृत्यु के बीच का एक स्वप्नमयी विस्तार है । स्वप्न-मुक्ति का आन्दोलन ही संन्यास है। जीवन एवं जगत् को स्वप्न मानना अनासक्ति प्राप्त करने की सफल पहल है। अनासक्ति/अमूच्छी साधना-जगत की सर्वोच्च चोटी है और इसे पाने के लिए भौतिक सुखसुविधाओं की नश्वरता का हर क्षण स्मरण करना स्वयं में अध्यात्म का आयोजन है।
संसार की अनित्यता का चिन्तन करना निर्मोह होने का पहला सोपान है। संसार में हमें जो स्थिरता दिखाई देती है वह सत्य नहीं, दृष्टि-भ्रम है ।
जिसने संसार के रहस्य और स्वभाव को समझ लिया, वह बाहरी चकाचौंध से हटकर अन्तर्यामी रस लेगा, वह स्वयं में अपना तीर्थ देखेगा तथा स्वयं ही अपना तीर्थङ्कर बनेगा। वास्तव में अन्तर्यात्रा ही तीर्थयात्रा है, वहीं सारे तीर्थ विद्यमान हैं। ।
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