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संसार नदी-नाव का संयोग है । अतः किसके प्रति आसक्ति और किसके प्रति अहं-भूमिका ! योनि-योनि में निवास करने के बाद कैसा जातिमद, सम्बन्धों का कैसा सम्मोहन ? जब शरीर भी अपना नहीं है, तो किसका परिग्रह और किसके प्रति परिग्रह-बुद्धि ? काम-क्रीड़ा आत्मरंजन है या मनोरंजन ? संयम-पथ पर पाँव वर्धमान होने के बाद असंयम का आलिंगनक्या यही साधक की साध्यनिष्ठा है ?
जीवन स्वप्नवत् है। सारे सम्बन्ध सांयोगिक हैं। माता-पिता हमारे अवतरण में सहायक के अतिरिक्त और क्या हो सकते हैं ? पति और पत्नी विपरीत के आकर्षण में मात्र एक प्रगाढ़ता है। बच्चे पंख लगते ही नीड़ छोड़कर उड़ने वाले पंछी हैं । बुढ़ापा आयु का बन्दीगृह है। यह मर्त्य शरीर हाड़-माँस का पिंजरा है। मनुष्य तो निपट अकेला है। पति-पत्नी की तरह साथ रहना जीवन की एक आवश्यकता मानी जाती है, पर क्या कोई इस बात की चुनौती कर सकते हैं कि वह बहुत सुखी जीवन जी रहे हैं ? नहीं कर सकते। फिर धर्म-पथ से स्खलन कैसा ? धर्म आत्म-आश्रित है, शेष लोकाचार है, धूप-छाँह-सा आँख-मिचौनी का खेल । ।
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