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________________ ५० श्रार्यं समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती का उपदेशात्मक कथन यथार्थ है कि “ पूजा के योग्य सबसे प्रधान देवता माता है । पुत्रों को चाहिए कि माता की सेवा तन-मन-धन से करें । उसे सब प्रकार से प्रसन्न रखें, उसका अपमान कभी न करें ।" माँ की सेवा करना, पूजा करना, भगवान् के चरणों की सेवा-पूजा करना है । जो इसकी पूजा करने में प्रबल पराक्रम दिखा सकता है वह धर्मक्षेत्र में भी प्रबल पराक्रम दिखा सकता है । विकास की प्रथम सीढ़ी तो यही है । अपना जीवन तो समाया रहना चाहिए माँ - आज्ञा पालन में । माँ की आज्ञा का पालन करना तो पल-पल की आराधना है । कहावत है- Work is workship उसका कार्य करना ही उसकी पूजा है । पच्चीस रुपये देने वाले सेठ की नौकरी में आप नियमित आते हो, उसकी प्रत्येक प्रज्ञा का पालन करते हो, पैसों के चन्द टुकड़ों के के लिए सौ भाईजन के मध्य बेइज्जती करवा लेते हो । पर क्या माँ की सेवा व प्राज्ञा का पालन आपसे नहीं हो सकता । माँ की आज्ञा अमल करने में अधिकांशतः आप प्रकृतज्ञ हैं । दीर्घ दृष्टि डाल कर देखिये कि किसकी प्राज्ञा का पालन अधिक लाभदायी है । दीर्घ दृष्टि से विचार करोगे तो स्वतः ही सत्य वस्तु वस्तु हाथ लगे बिना न रहेगी। सही दिशा निर्देश का ज्ञान होने पर शूल निकालें और जो कांटे हमसे बिछ गये हैं उन्हें चुन-चुन कर अलग करदें । जिससे जीवन में सुगन्ध प्रवाहित होगी । मां से प्रेम करने में मस्ती प्रानन्द हासिल होती है। जिसके बिना जीवन नीरस है । ज्ञानमार्गी शाखा के प्रवर्तक संत कबीरजी भी मीरा की भांति ढिढोरा पीट-पीट कर चेतावनी देते हैं " ढाई आखर प्रेम का पढ़ सो पंडित होय" । सारे धर्मग्रन्थों का सार ही प्रेम है । जैसा कि 'उमास्वातिकृत् ' ' प्रशम रति प्रकरण में जिसकी टीका हरिभद्र सूरि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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