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________________ ८१ ने की है, में मुमुक्षु ने प्रश्न किया कि वस्तु तो एक ही है । कुछ ही शब्दों में सम्पूर्ण धर्मग्रन्थों का सार निकल आता है। मूल में तो बात यही है कि प्रेम करो, द्वेष नहीं । सारे संतों की वाणीभी यही कहती है । प्रेम तो केवल ढाई शब्द ही है और इन्हीं शब्दों को अपनाना है तो इतनी रामायण क्यों ? इतना साहित्य और उपदेश क्यों ? नूतन तो इसमें कुछ भी नहीं है । प्रत्युत्तर रूप में 'कहा कि यद्यपि यह कथन यथार्थ है, तथ्य तो इतना ही है, श्राचरण में तो यही लाना है । परन्तु यह सत्य इतनी सरलता से प्रचरित हो जाये तो फिर बात ही क्या है ? प्रेम और वैर की भावनाओं को सूक्ष्म नहीं बल्कि विशिष्ट दृष्टि से देखो । यदि प्रेम - मलय शीतलता प्रदान करता है तो वैर ताड़ को बढ़ाता है । प्रेम यदि सदा शुभाशीष बांटता है तो वैर अभिशाप । प्रेम यदि नदी की मन्द धार की गति है तो वैर मरुस्थलीय उग्र आंधी। यदि प्रेम मुस्कान तो वैर व्याधि । वैर यदि रक्त चूसता है तो प्रेम उसे सवाया करता है । 10 अतः माँ से प्रेम करो, उसकी उपासना करो, भक्ति करो और वह भी प्रेम सहित क्योंकि "बिना प्रेम जो भक्ति है, वह निज दम्भ विचार ।" माँ के प्रेम का प्रतिफल प्रसिद्ध निम्न पंक्तियां दिग्दर्शित कराती हैं बैठना छाया में चाहे कैर हो, रहना भाइयो में चाहे बर हो । चलना रास्ते से चाहे फेर हो, खाना माँ से चाहे जैर हो । " अधिक तो क्या संक्ष ेप में यही कहना है कि माँ के लिए विचारों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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