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पिचकारियों से पानी छिड़क रहे थे। जिसमें से प्रवाहित ठंडी व सुगन्धित पवन हृदय को असीम शान्ति पहुंचा रही थी।
अर्हन्नक मुनि को लगा कि सच्ची शान्ति तो यहाँ है। भानु के भयंकर ताप में भटक कर भिक्षा माँगने में क्या शान्ति संप्राप्त हो सकती है ? इससे तो मात्र कायाकष्ट ही होता है। विचारों में डूबे हुए वे दासी के पीछे-पीछे रसोई घर के आगे जा पहुंचे । दासी उन्हे वहाँ छोड़कर चली गई । वह तरुणी मुनि को आहार देने निमित्त आकर तैयार खड़ी थी। अर्हन्नक मुनि के पधारते ही वह मिष्ठान्न आदि की थाली ले आई और मुनि के पात्र में देने लगी मिठाई देते हुए वह बोली-मुनिराज ! ऐसी प्रचण्ड धूप में बाहर निकल कर अपनी कोमल काया को क्यों निष्कारण संतप्त करते हैं ? अनुकम्पा कर आप अभी यहीं रुक जाएँ, धूप ढल जाने पर जहां जाना हो जा सकते - ताप से त्रस्त अर्हन्नक मुनि को यह बात युक्ति-संगत और बड़ी मधुर लगी । वे इसका कुछ भी प्रत्युत्तर न दे चुप रहे ।
"मौनम स्वीकृति लक्षणम । स्त्री उनका मन समझ कर मकान के एक एकान्त कमरे में ले गयी और कहा-आप यहाँ आहार पानी कर थोड़ा आराम करें। यह कहकर वह चली गई।
अर्हन्नक मुनि इस सहज संप्राप्त सुविधा में लुब्ध होकर आहार पानी करने के अनन्तर आराम करने लगे। वे धूप की गर्मी से एक तो त्रस्त थे और गरिष्ठ आहार करने से भी । शीतल स्थान पर नींद के खर्राटे लेने लगे। ऐसा लग रहा था मानों कुम्भकर्ण जो "विश्व खिलाड़ी नींद विजेता" हैं को पराजित करने के प्रयास में हो।
मुनिराज का ऐसा स्वागत करने वाली नवयुवती का पति वर्षों से व्यापार के निमित्त विदेश में भटक रहा था। उसकी विरहाग्नि से संतप्त स्त्री को अर्हन्नक मुनि के रूप और यौवन ने मुग्ध कर दिया। चिरकाल से वशवर्ती रखा हृदय अब वश में न रह सका। मुनि का
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