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________________ दर्शन करने के लिए वह निःशब्द पांवों से चलती हुई जिस कमरे में मुनि सोए थे, आ पहुंची। उन्हें घोर निद्राधीन देखकर कितनी ही देर तक उनके मुख मण्डल को निहारती खड़ी रही और.....और.... गरमी से जैसे मोम पिघल,जाता है उसी प्रकार उसका मानस पिघलने लगा। वह धीरे से मुनि के पास बैठ गई और अपना कोमल गौर वर्ण हाथ उनके मस्तक पर रख दिया। सुषुप्तावस्था। थोड़ी देर बाद वे जगे। जागृत होते ही प्रतीत हुअा कि कोई मेरे मस्तक पर कोमल हाथ फिरा रहा है। पीछे दृष्टि डाली तो वही स्त्री नजर आई। वे कुछ न बोल सके । उसके सामने निहारते रहे । स्त्री भी उनके सामने देखती रही। फिर तो एकान्त, बन्द कमरा, तरुणावस्था और मन की बेबसी ये चारों एकत्रित हो गए। मन में नानाविध जटिल ज्वालामुखी भड़क उठी। इस विषम अग्नि पथ पर अग्रसर हो गए। उसी के साथ अर्हन्नक मुनि अपना मुनिपना विस्मृत कर वैठे, उन्होंने गहस्थाश्रम में प्रवेश कर लिया। वे बिन्दु से बिन्दु ही रह गए, सिन्धु नहीं बन पाये। एक बार जिसने मन पर कब्जा खो दिया, उसे फिर मन को वश में रखने में बहुत समय लगता है। अर्हन्नक मुनि श्रमण जीवन से पतित हुए तो उनकी भी यही हालत हुई। वे रात्रि दिवस भूलकर मास और ऋतु का भेद विस्मृत कर अनवरत मौज मजा में ही समय व्यतीत करने लगे। __अब इधर क्या हुआ, वह देखें। “सार सार" को ग्रहण कर, "थोथा देइ उड़ाय" । उनके साथी मुनियों ने उनके आगमन की प्रतीक्षा की, किन्तु वे न आये । अतः वे लोग अन्यत्र विहार कर गये किन्तु उनकी माता भद्रा को यह दःख अपरिमित असह्य हो गया। साध्वी जीवन में भी वह पुत्र का चन्द्रमुख देखकर आनन्द प्राप्त . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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