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लेता है तब पुत्र, पुत्र नहीं सुपुत्र बन जाता है। वैसे भी आचारमर्यादा को त्वरया आत्मसात् करने में नारी-माता का वर्ग अग्रगण्य है। माँ अपनी करुणा, कोमलता प्रभृति गुणों के कारण सातवें नरक में नहीं जाती। प्राचीन- अर्वाचीन शताब्दी में माँ द्वारा सम्पन्न होने वाली समाज-सेवा अपना विशेष स्थान रखती है। वह शक्ति और प्रतिभा के विकास से हमसे किसी प्रकार से भी न्यून नहीं है । स्वतन्त्रता-संग्राम एवं आज के शासन-तन्त्र मैं माँ का योगदान इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । वह भी अभूतपूर्व, जाज्वल्यमान और प्रशस्त है।
यदि आप युवक हैं अथवा बालक हैं तो आप यह कभी अहंकार मत करना कि हम स्त्री-वर्ग अथवा बालिका-वर्ग से आगे हैं। क्योंकि "कुर्वन् मदं पुनस्तानि, हीनानि लभते जनः” (योगशास्त्र) बालक की अपेक्षा बालिका अधिक संवेदनशील, भावुक,समझदार एवं ग्राह्यशक्ति धारण करने वाली होती है उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने "कायाकल्प" में लिखा है कि-"बालिका का हृदय कितना सरल, कितना उदार, कितना कोमल और कितना भावमय होता है।" और "बालक शिक्षित होने से केवल अपना ही भला करेगा, किन्तु बालिका पूरे परिवार का भला करेगी।"-यह वाक्य महान् राजनीतिज्ञ, यशस्वी लेखक और प्रधान मन्त्री जवाहरलाल नेहरू के हैं। इसी कारण अपने उत्तम संस्कारों और विचारों को प्राण जाने पर भी बालिका नहीं छोड़ती। यही कारण है कि वे सफल पूत्री, सफल पत्नी और अन्त में सफल माँ सिद्ध होती है । और उसके कारण ही घर स्वर्ग बनता है।
यह माँ सन्तान से कुछ भी नहीं लेती, जीवन भर देती ही रहती हैं । जिसने केवल बलिदान ही बलिदान दिया, अपने जीवन को हम पर न्यौछावर कर दिया,उसकी सेवा-सुश्रुषा करना हमारा ही कर्तव्य नहीं, बल्कि सभी का धर्म बनता है । “मनुष्य उतना ही महान होगा जितना वह अपनी प्रात्मा में सत्य, त्याग, दया, प्रेम और शक्ति का विकास करेगा"- स्वेटमार्डन (दिव्य जीवन)
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