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________________ 88 मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम ने कैकेयी माँ के प्रति कहा था "नत्ह्यतो धर्मचरणं, किंचिदस्ति महत्तरम् । यथा पितरि शुश्रषा, वस्य वा वचन क्रिया ।। (वाल्मीकि रामायण) पिता की सेवा करना और उनकी आज्ञा का पालन करना इससे बड़ा कोई धर्माचरण नहीं है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के अयोध्याकाण्ड में यह भी लिखा है"न सत्यं दानमानो वा न यज्ञाश्चाप्तदक्षिणाः । तथा बलकराः सीते ! यथा सेवा पिहिता ॥ हे सीता ! पिता की सेवा करना जिस प्रकार कल्याणकारी माना गया है वैसा प्रबल साधन न सत्य है न दान और न सम्मान और न प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञ ही हैं । यही सामग्री माँ-हेतु भी अवतरित है। जब पिता के आदेश व सेवा को इतनी महत्ता दी जाती है तो फिर माँ की महत्ता तो शब्दातीत होगी, क्योंकि उसका महत्व तो पिता से हजार गुना अधिक है। आपने अभी तक माँ के सात्विक प्रेम को पहचाना नहीं । प्रेमपंथ को आपकी सामीप्यता प्राप्त है। प्रेम-पंथ कमल के तंतु से भी ज्यादा क्षीण है और तलवार की धार से भी अधिक कठिन तेज । यह प्रेम-पंथ जितना सीधा है, उससे कहीं अधिक टेढ़ा भी है। चाहे वह कैसा भी हो आपके लिए अनिवार्य है। वैसे तो मुसलमान हिन्दी कवि रसखान ने भी यूँ ही कहा है कियह प्रेम की पंथ करार महा, तरवार की धार पे धावनो है। (रसखान-रत्नावली) दूसरे शब्दों में मोम के दांतों से लोहे के चने चबाने के समान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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