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________________ तरह समझा दे ऐसा कठिन है । मैने तो सोचा था जितना लाड़-प्यार अानन्द खुशी दे सकू उतना हूँ। मेरी तू आँखों की पुतली है, मन की दुलारी है। जितना समय घर में मेरे साथ व्यतीत हो जाए,उतना अच्छा है, बाद में न जाने कब मिलना होगा। अब तो मैं आज ही तुम दोनों का कार्य पूर्ण करवा, निवृत्त हो जाऊँगी। ऐसे कार्य की पूर्ति में परिस्थितियाँ भी मेरे बाधक नहीं है। वर्तमान में कहीं रूप बाधक हो जाता है तो कहीं पैसा तो कहीं शिक्षा बाधक हो जाती है। जबकि सत्य है कि समाज की लड़की समाज में ही जायेगी, जाति-व्यवस्था में ही हमारे सम्वन्ध स्थापित होने हैं, फिर भी छटाई और इसके पीछे लोभवत्ति न जाने क्या-क्या करवा रही है। परन्तु मेरे सामने तो तुम दोनों के लिए ऐसी कोई बाधा नहीं सोचने-सोचने में कितना बड़ा अन्तर आ गया, माँ के विचार क्या हैं और पुत्र-पुत्री के क्या हैं ? प्रिय ! अविरल गतिमान संसार में अनादिकालीन जन्म-मरण के चक्र से कोई भी नहीं बच पाया है । "ऊगे सो तो आथ में, फूले सो कुम्हलाय, जन्मे सो निश्चय मरे, कौन अमर हो प्राय ।” अतः माँ के उपकारों का मूल्य समझते हुए प्राप्त अमूल्य क्षणों का सदुपयोग उनकी सेवा में लगाने का प्रयास करो। न जाने मृत्यु किस क्षण प्रा घेरे। पाता है वह जाता है, यह तो परम्परा का रहा हुअा क्रम है । प्राना और जाना यह कोई महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है आने और जाने के मध्य में स्थिर रहने वाले समय से उठाया गया लाभ । तीर्थकर महावीर की वाणी सावधान कर रही है कि कुश के अग्रभाग पर स्थिति प्रोस बिन्दु के सदृश यह जीवन है। उत्तराध्ययन सूत्र में गाथा है "दुमपतए पंड्डयए जद्वा निवडइ राइगणाण अच्वए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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