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________________ ६३ रात्रियों के व्यतीत होने पर वृक्ष का पत्ता पीला होकर जैसे गिर जाता है, वैसे ही मानव जीवन है । अतएव क्षण मात्र प्रमाद मत करो । पल-पल आयुष्य अल्प होता जा रहा है, श्वासों की डोर छोटी होती जा रही है । पुण्य कर्मों से प्राप्त यह मानव जीवन व्यतीत होता जा रहा है, इसके व्यतीत होने से पूर्व माँ के उपकारों का बदला चुकाकर सदुपयोग करना है। यह मानव-जीवन पानी के बुलबुले के समान अस्थिर हैं, क्षणभंगुर है । जल में वायु के स्पर्श से बुलबुले उत्पन्न होते है, मिट जाते हैं । मनुष्य पैदा होता है कुछ दिन संसार में रहकर गंगाजी के घाट चला जाता है । प्रभात होने पर अन्धकार रात्रि में जगमगाते तारागण कान्तिविहीन हो जाते हैं, वैसे ही मृत्यु के कारण मानव-जीवन का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है । जल की तरंग आती है चली जाती है, उसी प्रकार क्षण-क्षण करके हमारा जीवन समाप्त होता जाता है । भर्तृहरि ने अपने एक श्लोक में श्राश्चर्य प्रकट करते हुए कहा है "व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ति । रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् || आयुः परिस्रवति जिन्न घटादिवाम्भो । लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम् ॥” वृद्धावस्था भयंकर बाघिन की भांति सामने खड़ी है, रोग शत्रुत्रों की भांति आक्रमण कर रहे हैं, प्रायु जिस प्रकार फूटे हुए घड़े में से एकएक बूंद पानी टपकता है उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी क्षण-क्षण में समाप्त होता चला जाता है, पर आश्चर्य की बात है कि लोग फिर वही काम करते हैं जिससे उनका अनिष्ट हो । श्रत:--"नर कर उस दिन की तुम याद, जिस दिन तेरी चल चल चल होगी ।" इस भाव को ध्यान मैं रखकर माँ के उपकारों का ऋण चुकाने का प्रयास करो । कष्ट हो तो हँसते-हँसते सहन कर लो। सफर लम्बा है अवश्य, पर मंजिल पास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003957
Book TitleMaa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherMahima Lalit Sahitya Prakashan
Publication Year1982
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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