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________________ गहराई से पढ़ा, उतना बहुत कम लोग पढ़ पाये, महावीर की बात को आईन्स्टीन जैसे वैज्ञानिक ही पढ़ पाये, जिन्होंने चित्त की बारिकियों पर सोचा। लगता है, आईन्स्टीन ने महावीर की इस बात को ही दोहराया है कि मनुष्य बहुत चित्तवान है, एकाधिक चित्त का मालिक है। ___ मनुष्य वास्तव में अनेक चित्तों का एक चित्त है, वह चित्तों का समुदाय है। वह कैसे है चित्तवान? इसे समझें। जैसे हम रास्ते से गुजर रहे हैं। गुजरते-गुजरते कोई अच्छी-सी कार हमारे पास से निकली। हमने ऐसी कार देखी नहीं, हमारा ध्यान कार के प्रति गया तो हमारा एक चित्त उस कार से बंध गया। भविष्य में हम जब भी उस कार को दुबारा देखेंगे, तो वह पूर्व चित्त का अणु हमें पूर्व दर्शन की स्मृति दिलाएगा। यह अदृश्य शक्ति नहीं है। चित्त तो वास्तव में अणओं की ढेरी है। तो हमारे चित्त का एक अणु उस कार से चिपक गया।बहुत समय बाद भी जब हमें वह कार दिखाई देगी तो जो हमारा चित्त पहले निर्मित हुआ था, जो टुकड़ों में बंटा था, वह चित्त हमें फिर से याद दिला देगा कि यह वही कार है। आप ट्रेन से सवारी कर रहे हैं, बातचीत कर रहे हैं। तीन दिन की यात्रा है। सामने चारपांच आदमी बैठे हैं, बातचीत हो गयी, प्रेम हो गया, मैत्री हो गई, मगर रहेगी तो वह तीन दिन तक। आपका स्टेशन आ गया। आप रेल से नीचे उतर गये। रेल आगे बढ़ गयी, लेकिन यहां पर आपने उसके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लिया। चित्त का उसके साथ नाता हो चका है। पांच साल बाद भी जब वह मसाफिर मिलेगा तो देखते ही वह चित्त वापस प्रगट होगा और कहेगा कि यह तो वही व्यक्ति है, जिससे तुम पांच वर्ष पूर्व मिले थे। यह पहचान ही दार्शनिक भाषा में प्रत्यभिज्ञान है। प्रत्यभिज्ञान के लिए पूर्व चित्त और चित्त के संस्कारों का रहना अनिवार्य है। इसलिए आदमी का मन हमेशा बिखरा हुआ रहता है। ठीक वैसे ही जैसे राई के दानों की एक साथ ढेरी बनालो, मगर हर दाना अपना जुदा-जुदा अस्तित्व रखता है। पर्वत चाहे कितना ही बड़ा हो और अखण्ड हो, पर वह कण की दृष्टि से खण्डित है। क्योंकि पर्वत कणों का समुच्चय है। वैसे ही व्यक्ति की शक्ति और चित्त है। सारे अणु एक-एक करके बिखर जाते हैं, अलग-अलग हो जाते हैं। अतः मानव अनेक चित्तवान है। जब वह अनेक चित्तवान हो जाता है, तो वह लालायित रहता है, मुझे यह भी मिले, वह भी मिले, बहुत मिले, दुनिया की सब चीजें मिल जायें। कोई भी चीज बाकी न रहे। संसार और समाधि 85 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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