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लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान-अपमान-हर परिवेश में जिसकी आंखों में चमक होती है, होठों पर मुस्कान होती है, वही साधक है।
वस्तुतः सम्पूर्ण आचार और दर्शन का निचोड़ समभाव ही है। यह नवनीत है। धर्म और साधना के लिए जितने भी विधि-निषेध हैं, वे सब समभाव को साधने के लिए ही हैं। इसलिए साधना का मूल समभाव ही है। 'समयाए समणो होई'-समता से श्रमण होता है। श्रमण वही है जिसने समता की वीणा बजाई है। श्रमणत्व की पहिचान यही है। ___ मुंड मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता है। सफेद पीले चोगे पहनने से कोई श्रमण नहीं होता। नग्नता का बाना ओढ लेने से साधुता की बांसुरी सुर नहीं सुनाती। श्रमण तो समता से होता है। यदि गीता की भाषा में कहूं तो गीता में तो समत्व को ही योग कहा है- 'समत्वं योग उच्यते'! गीता तो समता को योग मानती है। इसलिए समभाव है समत्व-योग। बिना ओंधे लटके या बिना आसन जमाए सिद्धि दिलाने वाला है यह। इसे थोड़ा सा गहराई से समझें।
समत्व को जिन्दगी से अलग नहीं किया जा सकता। जिंदगी चेतना की उलझी हुई पहेली है। जहां-जहां जिन्दगी है, वहां-वहां चेतना है। जहां-जहां चेतना है, वहां-वहां समभाव की परछाई उभरती हुई दिखाई देती है। जिन्दगी की यह मांग है कि वह विक्षोभों से दूर रहे और साम्य स्थिति को गले लगाए। विक्षोभ हमेशा आक्रोश, क्रोध, वध, उत्तेजना
और संवेदना के कारण जनमता है। मानव तो क्या एक कीड़ा-मकोड़ा भी स्वयं को साम्यावस्था में बनाए रखने की चेष्टा करता है।
न केवल चेतनामूलक जीवन, बल्कि स्नायुओं में भी साम्य दशा जरूरी है। चेतना और स्नायु का काम भीतरी तनाव को कम करना है और साम्य-दशा/समत्व के लिए श्रम करना है। मनोविज्ञान के मुताबिक आन्तिरक विक्षोभों, उत्तेजनाओं और संवेदनाओं को शान्त करना तथा समत्व को मन में प्रतिष्ठित करना जीवन का बसन्त है।
चूंकि हम सब तनाव ग्रस्त हैं, अतः उस तनाव का कोई-न-कोई आदिम कारण अवश्य है।
जब व्यक्ति का शरीर और प्राणों के प्रति लगातार अभ्यास हो जाता है, तो वह अपनी चेतना के स्वभाव से बिछड़ जाता है। यह अभ्यास ही सम्मोहन, आसक्ति और राग को जन्म देता है। वैसे चेतना का स्वभाव समभाव है, मगर जब शरीर और प्राणों के प्रति सतत संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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