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________________ समय यह ध्यान रखें कि अतिशय न हो। अतिशयता सरदर्द है। इसलिए दृष्टिकोण अपनाना चाहिए संतुलित। यही है समत्वयोग, यही है समभाव और यही है मध्य-मार्ग। यह वह मार्ग है, जो किसी भी पक्ष के प्रति हमें झुकाता नहीं है, वरन हमें तटस्थ बनाता है। जो हो रहा है, उसे संयोग बताने का पाठ पढ़ाता है। जन्म, जरा, रोग, उपेक्षा, मृत्यु हर परिस्थिति में संतुलित बनाए रखेगा। ऐसे ही तो होती है दीप-लौ निष्कम्प। घर में कोई जन्मा, खुशियां छाईं। क्यों? क्योंकि राग था। जिस क्षण आपके घर में बच्चा पैदा हुआ, उस क्षण दुनिया में बहत्तर बच्चे और पैदा हुए, क्या आपको खुशी हुई? नहीं। क्योंकि राग का अतिशय उनसे नहीं था। दो दिन बाद अपना बच्चा मर गया, तो गम का कोहरा छा गया। क्योंकि राग को धक्का लगा। स्वयं के अहंकार और प्रभुत्व को चोट लगी। जो जन्म और मृत्यु को मात्र संयोग समझता है, दोनों के प्रति साम्यभाव रखता है, उसे गम कभी सताता नहीं है। उसकी अन्तर-रचना असाधारण हो जाती है। उसका इतिहास अनूठापन हासिल कर लेता है। सच्चे साधक की पहचान तटस्थता में है। मनुष्य शान्ति का उपासक है। विजय अहंकार को प्रोत्साहन देती है और पराजय वैर एवं उत्तेजना को। दोनों परिस्थितियों में स्वयं को तटस्थ रखना आत्म-शान्ति के लिए पहल करना है। हर परिस्थिति में समानता रखने से ही समस्याएं ढीली होती हैं। हमारी आंखें दो हैं, पर किसी की झलक देखने में दुर्भात नहीं है। आंखे दो हैं, जुदीजुदी हैं, तथापि हर किसी को एक सरीखी ही ग्रहण करती है। हम चाहे दायीं आँख से देखें या बायीं आँख से अथवा दोनों को सम्मिलित करके देखें, पर वस्तु-दर्शन में कोई फर्कनहीं आने वाला है। आंखों द्वारा वस्तु को उतार-चढ़ावमूलक दशा को साम्यभावना के साथ देखना ही समत्व-योग है, समभाव है। समभाव का मूल नाता अन्तरमन से है। इन बाहरी आंखों से परे एक और आंख है। और वह है अन्तर की आंख। वास्तव में यही तीसरा नेत्र है मानव-जीवन का। साधना की पगडंडी पर पांव बढ़ाने से पहले इस तीसरे नेत्र का विमोचन अनिवार्य है। वह व्यक्ति संसार में उपरत होने में गतिशील है, जो हर स्थिति में स्वयं को संतुलित और अनुद्विग्न बनाये रखता है। लाभ और अलाभ की धूप छांह में, सुख और दुःख की आंख मिचौली में, जन्म और मरण के ज्वार-भाटे में, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान की उठापटक में वह समभाव रखता है। साधक की यही सच्ची परिभाषा है। संसार और समाधि 82 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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