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हो गया। मन की मृत्यु ही तो मुनित्व है। यही मौन है। भला जब बांस ही नहीं है, बासुरी कैसे बनेगी? वह कैसे बजेगी?
मैं देखता हूं कि राग-द्वेष से छूटने के लिए कोई सूर्य की आतापना लेता है तो कोई शीर्षासन करके खड़ा हो जाता है। यह मात्र खूटे बदलने जैसा हो गया। शीर्षासन करने से कभी राग टूटता है? सूर्य की आतापना लेने से कभी मोह जलता है? पहले पैर के बल चलते थे, अब शीष के बल खड़े हैं। पहले चूल्हे की आग के पास बैठते थे, अब सूर्य की गरमी ले रहे हैं। पर बदला कुछ नहीं। यदि चित्त में वीतराग और वीतद्वेष के भाव उठ गये तो शीर्षासन दो कोड़ी का भी नहीं रहेगा। हमें गिराना है राग को, न केवल राग को अपितु द्वेष को भी।
आतापना का संबंध हम जोड़ लेते हैं काया से। जबकि इसका संबंध है आत्मा से। आत्मा को तपाने का नाम ही आतापना है। शीर्षासन सिर को आसन बनाना नहीं है, वरन दुनिया के आसन से स्वयं को ऊपर करना है। आतापना या शीर्षासन का जैसा आम अर्थ है, उससे काययोग सधेगा। काययोग आत्मयोग नहीं है। आत्मा पार है मन के, वचन के, काया के। ये तीनों चट्टानें हैं आत्म-स्त्रोत की। इनसे कैसा राग! सबसे पार होकर निरखो स्वयं को, अपने आपको। मन, वचन, काया के सारे पर्दो को उठाने पर ही स्वयं का आन्तरिक रंगमंच उभरेगा।
संसार में हमारा कोई न तो मित्र है और न ही शत्रु। यहां सब स्वअस्तित्व के स्वामी हैं। जैसे आप एक हैं और अकेले हैं, वैसे ही सभी अकेले हैं। यहां सभी अजनबी हैं, अनजाने हैं। दुनिया दो-चार दिन का मेला है। मेले में जा रहे थे, किसी के हाथ में हाथ डाल दिया
और दोस्ती कर ली। उसी से कभी अनबनी हो गई तो दुश्मनी हो गई। दोस्त भी हमने ही बनाया, तो दुश्मन भी हमने ही बनाया। यों मैं ही दोस्त बन गया और मैं ही दुश्मन।
मैत्री राग है और दुश्मनी द्वेष है। सत्य तो यह है कि द्वेष की जननी मैत्री ही है। बिना किसी को मित्र बनाए शत्रु बनाना असंभव है। जिसे आप आज शत्रु कह रहे हैं, निश्चित रूप से वह कभी आपका मित्र रहा होगा। इसलिए जो लोग द्वेष के कांटे हटाना चाहते हैं, उन्हें राग के बीज हटाने जरूरी हैं। राग से उपरत होना निर्विकल्प-भावदशा प्राप्त करने की सही पहल है। ___ जीवन में अन्तरंगीय परिवर्तन लाने के लिए न तो स्थान-परिवर्तन जरूरी है, न रंग ढंग या वेष-भूषा। असली परिवर्तन आता है चित्तदशा के परिवर्तन से। पर परिवर्तन के
-चन्द्रप्रभ
संसार और समाधि
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