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उसमें प्रतिबिम्बित भी होता है, फिर भी वह स्वयं अकर्म-दशा में है, साक्षीभाव में है, द्रष्टा रूप है। उपस्थित है,पर लगाव नहीं।
पता नहीं, लोग अति में ही अपनी मति को क्यों अटका बैठते हैं। बहुत से लोग भोजनपटु हुआ करते हैं। एक आदमी को मैने देखा कि वह चार किलो हलुआ खा गया। वह पचास-पचास रोटी खा जाता। एक दिन किसी ने उससे शर्त रख लो। वह भरपेट खाना खाया हुआ था। शर्त के मुताबिक वह सात लीटर पानी पी गया। यह मानव शरीर के साथ जबरदस्ती है। पानी पी गया, पर भुगतना पड़ा उसे।
शरीर में जितने भोजन की आवश्यकता है अथवा जितने उपवास सहज रूप में स्थितप्रज्ञ बनाने में सहायक हो सकते हैं, उतने ही करना सही साधना है। शक्ति के अनुकूल की गई साधना ही आनंदकर होती है। वहीं आत्मतृप्तिकारक हुआ करती है। शक्ति के ऊपर की गई साधना या तपस्या जोर-जबरदस्ती है।
साधना का संबंध शक्ति से है। साधना शक्ति के अनुकूल होती है। किसी कार्य में प्रवेश करने से पहले अपने सामर्थ्य को एक बार परख लें। आत्म-बल, शारीरिक-बल, श्रद्धा, स्वास्थ्य, स्थान, समय सबकी अनुकूलता देखकर ही स्वयं को संयोजित करें किसी मार्ग पर। अनुकूलता के मुताबिक किया गया काम और की गई साधना कभी भी भारभूत नहीं होती। भार का ही दूसरा नाम अतिवादिता है।
इसलिए राग और द्वेष-ये दोनों ही अतियां हैं। रागात्मक संयोग का नाम ही संसार है। इसीलिए तो मन राग से भरा होता है, मोह का आलिंगन लिये रहता है। मन सदा एक पक्ष में ही नहीं रहता। वह विरोधी पक्ष के गले में भी अपनी वरमाला डालता है। अतः राग
और मोह की राख घृणा और द्वेष की चिता में होती है। ___जो लोग समाधि के गीत गाते हैं वे अनुकूल विषयों में कभी राग भाव न करें, तो प्रतिकूल विषयों में द्वेष भाव भी न करें। जिसने राग-द्वेष का बोरिया-बिस्तर गोल कर दिया, उसका मन फिर जीवित रहेगा? मन की चपलता दूर हो जाएगी। भूल जाएगा वह अपनी राजनीति।
मन जीता ही चुनाव-वृत्ति में है। यह अच्छा है, इसलिए ग्राह्य है। वह बुरा है, इसलिए त्याज्य है। यह चयन ही मन के निर्माण की आधारशिला है। जो तटस्थ हो गया, चुनावरहित हो गया, जागरूक हो गया, उसका मन मिट गया। उसका मन साधु हो गया, निर्ग्रन्थ
संसार और समाधि
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-चन्द्रम
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