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________________ वीतराग स्वयं से जुड़ना है। दूसरों से टूटने से यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति अपने से जुड़ गया। पर जो अपने से जुड़ जाता है, वह दूसरों के तादात्म्य से अपने आप छूट जाता है। जो स्वयं से जुड़े बिना दूसरों से टूटता है, संसार को छोड़ता है, वह वमन किये हुए और त्यागे हुए के प्रति किसी भी क्षण पुनः आकर्षित हो सकता है। इसलिए वीतराग साधना का यथार्थ है । द्रष्टाभाव साक्षीभाव ही वीतराग होने का प्रथम चरण है। कर्त्ताभाव को छोड़कर द्रष्टाभाव में प्रवेश करना आत्मदर्शन की पूर्व तैयारी है। वीतरागता और वीतद्वेषता जय एवं पराजय दोनों परिस्थितियों में स्वयं को तटस्थ बनाए रखना है। यह अतिवादिता नहीं, समता है। आंख दो, पर रोशनी एक । वीतरागविज्ञान का यही निचोड़ है। साम्यवाद की पराकाष्ठा ही वीतराग की आभा है। राग बाहर की यात्रा है और मन इसमें बड़ा सहयोगी है। मन भी अपने आप में एक अति है। इसे समझें। मानव मन को अतिवादिता से काफी ममता है। मन की ग्रंथियों में अतिवादिता के धागे जुड़े हुए हैं। वह एक अति का त्याग करता है, तो दूसरे अति में कदम रख लेता है। एक खूंटे को तजता है, तो दूसरे से बंध जाता घर से छूटता है तो घाट का रास्ता ले लेता है और घाट से रवाना होता है तो न घर का रहता है न घाट का । यह चूक बार-बार होती है। एक अति से बचने के चक्कर में दूसरी अति से गलबांही हो जाती है। यों करने से आदमी खाई से तो उबर जाता है, पर कीचड़ में जाकर धंस जाता है। यह एक अनबूझी पहेली है। जिससे राग था, उससे राग तोड़ा, किन्तु राग के टूटते- तोड़ते द्वेष ने मुंह डाल दिया । हकीकत तो यह है कि राग को समाप्त करने के लिए द्वेष की पहल अनिवार्य बन जाती है। राग प्रेमात्मक बन्धन की इस छोर की अति है तो द्वेष उस छोर की। जो दोनों से बचना चाहता है वह न तो राग से द्वेष करता है और न द्वेष से राग। ये दोनों ही अतियां हैं रिश्ते की । मनीषी वह है जो उभय पक्ष की अपेक्षाओं के प्रति सजगतापूर्वक अपनी भीतर की आंख मूंद लेता है। वह तटस्थ रहता है। नदी में पानी बहे या कचरा, उससे उसे कोई मतलब नहीं। वह तो किनारे पर खड़ा खजूर का वृक्ष है। जल के उतार-चढ़ाव को देख रहा है। स्वयं संसार और समाधि 79 - चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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