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________________ एक विद्वान राजसभा में बड़ी अहंकार की बातें किया करता था। उसने कहा कि मैं केवल ब्राह्मण के हाथों का ही भोजन करता हूं और उसी का पानी पीता हूं। इसके अलावा और किसी का नहीं पीता। बड़ी-बड़ी डींगे हांकी। रवाना हआ राजसभा से। अपने घर की ओर जा रहा था कि रास्ते में कछ थक गया। किसी घर के चबूतरे पर बैठ गया। वह घर एक वेश्या का था। वेश्या ने देखा तो पाया कि यह वही आदमी है, जो राजसभा में जातिमद भरी डोंगें हांक रहा था। वह जानती थी ऐसे लोगों का स्वभाव कैसा होता है। उसने उसका आदर-सत्कार किया और घर चलने के लिए कहा। विद्वान ने पूछा यह घर किस जाति का है? वेश्या बोली, आप जैसे विद्वानों को जातिपांति से क्या लेना-देना! आप तो ब्रह्मवेत्ता हैं, वेदवेत्ता हैं, ज्ञानी हैं, महापुरुष हैं। तब वह चुप हो गया। उसने सोचा भाई जब चबूतरे पर बैठ चुका हूं, फिर जातिपाति पूछने का प्रश्न करना ही नासमझी है। विद्वान ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया। उसके घर में गया। वेश्या ने कहा, विप्रवर! गला सूक गया है। एक गिलास पानी पी लीजिये। ब्राह्मण बोला कि जातिपांति जाने बिना तुम्हारे घर का पानी कैसे पीऊंगा। वेश्या ने झट से एक स्वर्णमुद्रा निकाली और उसको दे दी। स्वर्णमुद्रा देखते ही विद्वान अपने आपको भूल बैठा और पानी पी गया। उसके बाद घर में प्रवेश करने के लिए वेश्या ने उससे दूनी मुद्रा दी। वह लाभ से लोभ की ओर बढ़ चला। चला गया भीतर। वेश्या बोली आप जैसे ज्ञानी पुरुष से मेरी कुटिया निहाल हो गई। विद्वान को मुद्राएं मिलती गईं और वह अपनी मर्यादा विसरता गया। पानी पिया, घर में आया, भोजन किया। आखिर वेश्या ने विद्वान् को पान थमाया। विद्वान लेने से मुकर बैठा, तो वेश्या ने उसी पान को अपने मुंह में डाला। आधा पान खुद ने खाया और आधा जूठा पान सौ स्वर्ण मुद्राओं के साथ विद्वान की ओर बढ़ा दिया। विद्वान फिर लोभ में आ गया। उस विद्वान ने जैसे ही वेश्या के हाथ का जूठा पान अपने मुंह में रखा कि उसी के साथ उसके गाल पर, दिन में चांद दिखा दे, ऐसा करारा तमाचा आया। विद्वान उस तमाचे को सम्भाल न सका। वह हक्का-बक्का रह गया। वेश्या बोली. राज्यसभा में मानवता का अपमान करते हो और यहां वेश्या के हाथ से पानी भोजन ही नहीं, जूठा पान खाते हो? लोभ-लालच में पड़कर ब्राह्मणत्व और पांडित्य को भी दांव पर लगा बैठे?। संसार और समाधि 73 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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