________________
जब आदमी का लोभ बढ़ता जाता है तो वह यह नहीं देखता है कि मैं कौन हूं और सामने वाला कौन है। इससे उसे प्रयोजन नहीं रहता। उसका केवल एक ही लक्ष्य होता है कि येन-केन प्रकारेण मुझे मिले। आदमी का लोभ यही कहता है कि तू अपने को भरता जा। जितना भर सकता है, उतना भर ले। कितना भी उसे मिल जाये, फिर भी वह रिक्त ही रहता है। लोभी मन तो फूटी बाल्टी है। भर भरकर भी रीतते चले जाओगे। उसकी जरूरतें ही बेजरूरतें बन जाती हैं।
जरूरत को पूरा करने के लिए प्रयास करना नैतिक पुरुषार्थ है, किन्तु चाह की पूर्ति के लिये प्रयत्नशील रहना बिना पैदे की बाल्टी को भरना है। जब जरूरत ही पूरी नहीं हो जाती, तो चाह की पूर्ति असम्भव है।
एक तो है जरूरत और दूसरी है चाह। यदि किसी को जरूरत है साइकिल की तो यह जरूरत पूरी हो सकती है मगर यदि उसी की चाह एक ही समय में मोटर साइकल की, स्कूटर को, कार की होती जाये तो वह कभी पूरी नहीं हो सकती।
इस शरीर की जरूरतें क्या हैं? शरीर की जरूरत है कि हमें दो समय पेट भर भोजन मिल जाये। बस इसकी केवल इतनी ही अपेक्षा है। मगर मन की चाह क्या है? वह कहता है भले ही तू भूखे मर। मगर तेरी पेटी को तो भर ले। तेरा पेट खाली रहे तो चिन्ता नहीं, मगर तेरी पेटी भरी रहनी चाहिए। चाह में और जरूरत में यही तो बुनियादी भेद है। जरूरत में केवल पेट भरने की तमन्ना रहती है और चाह में पेटी भरने की। इसलिए आदमी का पेट से पेटु हो जाना स्वाभाविक है।
शरीर की आवश्यकता तो यह है कि हमें दो कपड़े मिल जाये ओढ़ने के लिए। एक साड़ी मिल जाये पहनने के लिए। मगर मन कहता है सौ साड़ियां रखो, दस धोतियां रखो कि पच्चीस पेन्ट रखो। पर हां, यदि यही विराम नियमपूर्वक हो तो परिग्रह की सीमा बंध जाती है। वह भी अपरिग्रह की सीमा में आ सकता है। पर लोभी मन तो एक नहीं, हजारों की लालसा में है। ‘मम्मण' कितना भी पा ले, पर शमन कहां उसके लोभ का। लोभ को लोभ से नहीं, अलोभ से सींचा जाये और चिन्तन किया जाये
पाने के साधन विशद्ध हों धन हो चाहे तण-कण हो। न्याय मार्ग हो, नीति प्रीति हो. जीवन सम्यक दर्शन हो। भोजन उतना ही हो मेरा, उदर पात्र में समा सके।
ओढूं पहनूं उतना ही मैं तन ढकना ही कहा सके। संसार और समाधि
74
-चन्द्रप्रभ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org