________________
लाभ से लोभ की ओर
चाल जीवन का स्वभाव है, किन्तु सम्भलकर चलना जीवन का जागरण है। दुनिया का रास्ता काफी जोखिम भरा है। डर है कि कहीं व्यक्ति अपने आपको भीड़ में खो न बैठे।
दो दिन की जिंदगी में, इतना मचल के न चल।
दुनिया है चलचलाव का रस्ता सम्भल के चल। यह दुनिया भी एक मेला है। जिधर देखो, मेला ही मेला! यहां हर किस्म की दुकान है। इसलिए यह मेला नहीं, झमेला है। सभी कुछ सजा है दुकानों में। हर मन चाही चीज यहां बिक रही है। पर अपनी चीज दिखाई नहीं देती। दिखाई भी दे तो कैसे? स्वयं तो भटका हुआ है मेले की रंगबिरंगी अठखेलियों में। . जो चाहो, वह सब यहां मिल सकता है, पर खुद को छोड़कर। जो मिलेगा वह मेरे
का तादात्म्य लिये होगा, दो के बीच मेरे का सेतु होगा। 'मैं' कहां है मेले में! मैं को खरीदने चला मेले में, पर वहां मैं कहां! यह बोध कहां है कि मैं मेले में नहीं, अपने में ही हूं।
मेला यानी भीड़। मेला भीड़ है। मनुष्य भीड़ में है। पर भीड़ के बीच भी निपट अकेला है। और ये मन! मन अखबार जैसा है, जहां ज्ञापन कम, विज्ञापन ज्यादा है।
मनुष्य का मन तो छोटे बच्चे की तरह उमड़-घुमड़ रहा है। वह हर चीज को लेना/खरीदना चाहता है। न मिले तो हठ भी करने लग जाता है। सुबक-सुबक कर रोने भी लग जाता है। उसे खिलौना चाहिये। खिलौना कुछ चीजों का, पुों का जोड़ है। बच्चा आकर्षित होता है जुड़े खिलौने की तरफ। कभी-कभार नहीं, अपितु रोजाना ही। बाजार से गुजरते समय वह हमेशा खिलौनों को लेने के लिए ठिठका करता है। इस खिंचाव का नाम ही सम्मोहन है।
मन बालक से कोई कम नहीं है। वह बालक जैसा ही है। मन तो लोकोक्ति है। कही हुई बात की पुनरावृत्तिाहै वह मनुष्य के ढंग से नहीं चलता, अपितु लोक के ढंग से चलता संसार और समाधि
66
-चन्द्रप्रभ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org