SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भैया! तुम चाहे जितना जीत लो पर एक-न-एक दिन हारोगे जरूर। यह सफलताओं का अहम् तुम्हें एक-न-एक दिन अवश्य असफल करेगा। थोड़े दिन गुजरने तो दो, अपने आप समझ में आ जाएगा कि समय अपना पासा कैसे पलटता है। यहां तुम जीत-जीतकर भी हार जाओगे और आखिरी दम में तुम हारोगे ही। सारे संसार को जीत लेने पर भी, दिग्विजयी और चक्रवर्ती बनने के बाद भी आखिर तुम हार जाओगे। क्योंकि तुमने अभी तक सुबह देखी, दोपहर देखी, सांझ के भी बेअनुभवी गीत सुने हैं पर रात का अंधियारा तुमने नहीं देखा है। तुम उससे अछूते रहे। तुम हार जाओगे उस समय जब रात का अंधियारा तुम्हें घेर लेगा। तुम असहाय रहोगे, बिल्कुल निरुपाय। वह हार ही तुम्हें सबक सिखायेगी कि जिन्दगी की हर जीत आखिर हार में बदल जाती है। तो तुम हार जाओगे आखिर उससे जिसको स्वयं की कोई जिन्दगी नहीं होती। तुम हारोगे उस मृत्यु से जो स्वयं मृत है और जिन्दगी की खोज में तुम्हारे आजु-बाजु है। इसलिए समझ लो कि सारी आशाएं और तृष्णाएं व्यर्थ हैं। संसार के फैलाव की आधारशिलाएं हैं। तृष्णा मात्र बोझा है। इस महाठगिनी को तो दूर से ही विदा दे दो। अन्यथा यह जल के बहाने मरीचिका में हमें फंसायेगी और हम मृग की तरह दुनिया के जंगल में दौड़ धूप करते रह जाएंगे। दूध के बहाने यह पूतना जहर पिलाएगी। कन्हैया! जागो। तृष्णा और कुछ नहीं, मात्र स्वयं का स्वयं के साथ धोखा है। जिस क्षण यह बोध होगा कि हर आशा आखिर निराशा ही देती है, उसी क्षण कीचड़ में पड़ा हुआ कमल का बीज स्वयं को अंकुरित कर लेगा। तत्पश्चात् वह जीयेगा जरूर, यात्रा भी करेगा, मगर नीचे की ओर नहीं ऊपर की ओर; कीचड़ की ओर नहीं खुले आकाश की ओर। सूरज की किरणें हंस-हंसकर उसकी निर्लिप्तता और प्रफुल्लता को नमस्कार करेगी, बादल उस पर अमृत का छिड़काव करेगा और हवाएं अपने झोकों में उसे प्राण वायु दे जाएगी। कारण, अब उसमें किसी तरह का शल्य नहीं है। वह निःशल्य है। यह उसके जीवन का अपूर्वकरण है। सच, इसी का नाम ही लो कैवल्य है। संसार और समाधि 65 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy