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________________ जिसकी तृष्णा मिट गई वह चैन की नींद लेता है। वह बालू के टीलों पर खुले आसमां के नीचे सो जाता है और अंगरक्षकों से घिरे सोने के छत्र के नीचे खड़े सिकन्दर को भी फटकार सकता है। वह कह सकता है कि जिस शान्ति को पाने के लिए तुम विजयश्री के घर-घर भटक रहो हो, वह मात्र तुम्हारी तृष्णा है। दुःख की शराब को सुख के प्याले में पीने की प्यास है। शान्ति तृष्णा में नहीं वितृष्णा में है, लोभ में नहीं संतोष में है। मखमल के गद्दों पर सोने के बाद भी तुम्हारी आंखों में नींद नहीं है जबकि वहीं मैं डायोजनीज रेती के टोलों पर भी आराम की नींद ले रहा हूं। मरुस्थल में भी शान्ति के झरनों में स्नान कर रहा हूं। हम जिस तृष्णा और आशा के पीछे पड़े हुए हैं, वह सपने से बढ़कर और कुछ नहीं है। तृष्णा के बहकावे में आकर आप लोग प्राप्त को तलाक मत दीजिये। जीवन को कल पर मत टालिये। बाहर में भटकती हुई तृष्णा को अन्तरात्मा की आवाज सुनने के लिए प्रेरित कीजिये। अन्यथा आप जिन्दगी के हर कदम पर हार खाते जाएंगे और विजय की आशा को लेकर जीते रहेंगे। सपने लेते रहेंगे, उजड़ते रहेंगे पर आपकी कामना और वासना कभी ठंडी नहीं हो पाएगी। यह संसार तो व्यक्ति को ऐसा उलझाता है कि वह उसे उलझन समझता ही नहीं। वह हर उलझन को लक्ष्य के करीब पहुंचना समझता है। अगर कोई हार भी जाये तो लोग उसे ढाढ़स बंधाते हैं, उसकी तृष्णा को कुरेदते हैं और कहते हैं इस बार हार गए तो क्या हुआ! घबराओ मत, अगली दफा जीत जाओगे और अगर अगली बार न भी जीत पाए तो कोई फिक्र नहीं उसकी अगली बार जीत जाओगे। ___ और सच कहता हूं इसी आश्वासन ने मेरे एक साथी को दसवीं में दस बार फैल करा दिया। हर बार फेल होता रहा और लोग अगले वर्ष पास होने की आशा बंधाते रहे और वह भी उसी आशा के बल पर हर बार परीक्षा देता रहा। पर पास हो कहां से जब पढ़ाई ही न करे तो। क्या कोरी आशा ही पास करा देगी? आशा के संजोने से व्यक्ति सफल नहीं होता। आशा के अनुरूप पुरुषार्थ करने से व्यक्ति सफल होता है। आशा मात्र बांधे रखती है और पुरुषार्थ बन्धनों के पार निर्बन्धों को देखता है, ग्रन्थों के पार निर्ग्रन्थों को निहारता है, क्षितिज के पार आकाश को ढूंढ़ता है। - यहां हम किसी को चाहे जितना आश्वासन दे दें कि तुम सफल होओगे, एक-नएक दिन जरूर जीतोगे। पर होता ठीक इसके विपरीत है। अगर मैं रहूं तो यह कहूंगा कि संसार और समाधि 64 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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