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________________ गिरगिट के बाहरी रंगों के परिवर्तन का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य अवश्य है, बाहरी शत्रुओं से रक्षा करने के लिये लाभदायक भी है, पर भीतर के शत्रुओं से स्वयं को बचाने के लिये भीतर में ही परिवर्तन चाहिये। बाहर का परिवर्तन द्रव्य-लिंग का परिवर्तन है और भीतर का परिवर्तन भाव-लिंग का परिवर्तन है। अगर बाहर का परिवर्तन स्वीकार कर सको तो बहुत बढ़िया अगर न कर सको तो भीतर का परिवर्तन अवश्य स्वीकार कर लेना। भीतर का परिवर्तन कौड़ियों के भाव का नहीं है। अमृत के भाव का है। भीतर का परिवर्तन करने के लिए इसलिए कहता हूं ताकि सिक्के पर मात्र मुहर न लगी रहे अपितु सिक्का स्वयं मोहर जितनी कीमत का हो, उतना ठोस हो, खरे सोने का हो। घिस भी जाये मोहर तो भी कोई फर्क न पड़े। कीमत तो आपने बचाकर ही रखी है मोहर के रूप में न सही, सोने के रुप में ही सही। भीतर का परिवर्तन यह है कि जिसको हम छोड़ रहे हैं उससे उसका संबंध भी छूट जाये। उसके प्रति इतने वीतराग हो जाएं कि कभी उसकी वासना वापस मन में जगे ही न। अगर वासना बची रह गई, तृष्णा जिन्दी रह गई, आशा की भूख जगी रह गई तो बाहर का परिवर्तन मात्र खूटे का बदलना होगा। इसके अलावा और कुछ नहीं। साधु का चोगा जरूर होगा, किन्तु साधुता की बांसुरी नहीं सुरसेगी। हाथ में इकतारा जरूर होगा पर संगीत नहीं जन्मेगा। मैं देखता हूं कि अधिकांश लोग इस चोगे के परिवर्तन में असलियत से बहुत दूर चले जाते हैं। वे नाले में ही नहाते रहते हैं। यथार्थ की गंगा उनसे कोसों दूर रहती है। निर्माण की तृष्णा उनके पीछे लगी रहती है। मकान का निर्माण कराना छोड़ दिया तो क्या हुआ मंदिर, मठ, धर्मशाला, उपाश्रय और म्यूजियम का निर्माण प्रारंभ कर दिया। कपड़े बेचने बंद कर दिये तो क्या पुस्तकें बेचनी प्रारंभ कर दी। साड़ियों और चोलों को त्याग दिया तो क्या हुआ साधुओं के बानों का परिग्रह प्रारंभ कर दिया। चूंकि तृष्णा नहीं बदली इसलिए ऐसा होता है। आखिर तृष्णा कहीं न कहीं तो अटकेगी ही और अपने अटकने में व्यक्ति को लटकाये रखेगी। ___ पुराने राजाओं की घटनाओं को पढ़ता हूं तो लगता है कि उन्होंने जीवन की उस घड़ी में साधुत्व स्वीकार किया जब उनकी तृष्णा के भटकन का पैण्डुलम नीचे गिर पड़ा। जब उनकी तृष्णा की आग बुझ गई, राजशाही ठाठ-बाठ की नश्वरता जान ली तो निकल गये सीधे जंगल की तरफ स्वयं में तल्लीन होने के लिए, स्वयं को पहचानने के लिए। संसार और समाधि 63 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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