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________________ हैं। अगले क्षितिज के पास पहुंचते हैं, जहां हमें आकाश का छोर नजर आता है। पर यह क्या, ज्यों-ज्यों उसके करीब पहुंचने की चेष्टा करते हैं, त्यों-त्यों वह हमसे दूर होता चला जा रहा है, फैलता चला जा रहा है। हमारा मन, हमारा चित्त भी इसी तरह फैलता है। वह अणु रूप में आसमान जैसा विराट है। फैलाव उसका धर्म है। चाह क्षितिज का बाना पहने है। उसकी हर सीमा प्रवंचना है, धोखा है। कभी आप उसकी सच्चाई के बहकावे में मत आ जाइयेगा। भिखारी भीख मांगता है। उसे पैदल चलकर भीख मांगना कठिन लगता है । सोचता है दिन भर टांगें तोड़नी पड़ती है। अच्छा हो, यदि मुझे सायकिल मिल जाये । संयोगवश उसकी यह इच्छा पूरी हो गयी। जब सायकिल मिल गयी, तो विचार आया कि स्कूटर मिल जाये। जब स्कूटर मिल गया तो कार की चाह जगी। पर क्या इतने में उसकी चाह मिट गयी? अब वह हवाई जहाज के लिए हाय-तोबा मचा रहा है। वास्तव में सामान बदल गये, वाहन बदल गये, परिस्थितियां बदल गई, जीवनकी गतिविधियां भी एक जैसी न रही, पर चाह और तृष्णा तो वैसी की वैसी रह गईं। जैसी भिखमंगे के जीवन में थी, वैसी ही अब करोड़पति के जीवन में है। अगर मैने सुना है, दो अध्यापक परस्पर बातचीत करह रहे थे। एक ने दूसरे से कहा, मुझे बिड़लाजी की सारी फैक्ट्रियां, सारे मकान, सारी जायदाद, चल-अचल सम्पत्ति मिल जाये तो मैं बिड़लाजी से ज्यादा कमा सकता हूं। तो दूसरे अध्यापक ने कहा, क्यों बेवकूफ बनाता है। तूं बिड़लाजी से ज्यादा कैसे कमा लेगा? पहले अध्यापक ने कहा, यार ! दो प्राइवेट ट्यूशन भी तो करूंगा। मिल जाये, सब मिल जाये, बिड़ला की सारी सम्पत्ति मिल जाये, तो भी पाने की प्यास नहीं बुझी । और कुछ नहीं तो दो ट्यूशन करके भी आदमी अपनी सम्पत्ति को बढ़ाता रहेगा। सब कुछ मिल जायेगा, या सब कुछ खो जायेगा तो भी तृष्णा तो है जैसी-की-तैसी रहेगी, मुश्किल है उसकी ऐसी-की-तैसी करनी! कई बार सोचा करता हूं कि साधु-सन्त लोग दुनिया को यही कहते फिरते हैं कि संसार बेकार है। तुम दीक्षा ले लो। बहुत लोगों के दिल में यह बात उतर भी जाती है और वे दीक्षा ले भी लेते हैं। वे त्याग देते हैं अपने चोले-पायजामे को और पहन लेते हैं साधुओं के बाने को। यह परिवर्तन तो जरूर हुआ। कम से कम बाहर से तो हो ही गया। पर आमूलचूल परिवर्तन तो तब होता है जब असली परिवर्तन भीतर से हो। यह बात नहीं है कि संसार और समाधि 62 + चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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