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जल में मीन। वह पानी पीकर भी यह सत्य-बोध नहीं कर पाता कि उसने जल-पान किया है। जल पी-पीकर भी अपने आपको प्यासा महसूस करता है। लोभ होता ही ऐसा है। ___लोभ कंजुसाई का सुधरा हुआ रूप है। लोभी को कितना भी मिल जाये, सोने और चांदी के कैलाश जैसे असंख्य पर्वत भी मिल जाये, तो भी उनसे उसका कुछ नहीं होता। कारण उसकी लालसा असंख्य की संख्या से भी पार है, आकाश ज्यूं कोरी है।
कदाचित सोने और चांदी के असंख्य पर्वत हो जाये। होते नहीं हैं, किसी ने देखे भी नहीं है। सोने के कैलाश जैसे पर्वत किसी ने अभी तक निहारे नहीं हैं। चांदी का हिमालय अभी तक किसी को देखने को नहीं मिला। इनका दर्शन तो विरल है। पर क्या मालूम हो जाये तो? हो जाये, भले ही हो जाये, सोने और चांदी के पर्वत हो जायें, तब भी लोभी आदमी को तृप्ति कहां!
लोभी आदमी को कैलाश जैसे हजारों स्वर्ण-पर्वत भी मिल जाये, तो भी वह तो चाहता है कि मझे इससे भी ज्यादा मिले। जितना मिला है, उससे भी कुछ और मिल जाये। जहां मिला है, उससे भी कहीं और मिल जाये। जहां मिला है, जैसा मिला है, जितना मिला है, उससे कहीं और चाहिये, कुछ और चाहिये, कोई और चाहिये। कुछ-कहीं-कोई और चाहने का नाम ही संसार का फैलाव है। __कोहिनूर संसार का सबसे कीमती हीरा है। कितनी लड़ाइयां हुई उसके लिए! पर क्या जिसने पाया उसे सन्तुष्टि और तृन्ति पायी? वह तो घास के एक कोर में लगी आग की तरह और बढ़ती गयी, फैलती गयी। आखिर तृष्णा की दौड़ में तृष्णा ही जीत गई, इन्सान बीच में ही लड़खड़ा कर गिर पड़ा। हीरा अब भी है, पर राजे-महाराजे मर गये। तृष्णा ने अब तक कितने-कितने राजा-महाराजाओं के माथों पर इस हीरे के पत्थर की मारी। सबने मार खायी भी, पर अब तक कोई समझ न पाया तृष्णा की इस मार को। ___ आपने कभी देखा आकाश? वह देखिये आकाश। लगता है आकाश का वहां किनारा है। आकाश की सीमा-रेखा वह क्षितिज दिखाई देती है। पर क्या आकाश का वहां अन्त है? क्या कहीं आकाश के रंगमच का पटाक्षेप है? जहां अभी लगता है आकाश का अन्त, वास्तव में वहीं से अनन्त की यात्रा शुरु होगी।
सोचते हैं एक किलोमीटर आगे आकाश का अन्त हो जायेगा। वहां पहुंचते हैं तो लगता है कि आकाश तो एक किलोमीटर और आगे बढ गया। हम एक किलोमीटर और दौड़ते
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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