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और इच्छा का वह अन्धड़ है जिसके छोर का कोई अन्त नहीं है। पर हां, उसका अंतिम छोर अनन्त भी नहीं है। अनन्त के पार भी तृष्णा का क्षितिज है, हर क्षितिज के बाद क्षितिज है। - जिसे लोग परम सत्ता और ईश्वर कहते हैं, वे भी इससे मुंह खट्टा-मीठा कर लेते हैं। संसार की पैदाइश में इसी तृष्णा की भूमिका रही। जो लोग जानते हैं कि सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ, वे बतायेंगे उसकी कथा को, जिसका प्रथम अध्याय तृष्णा से शुरु होता है।
तृष्णा कोई गले की प्यास नहीं है। यह मन की प्यास है। बताते हैं कि जिस दिन उस ईश्वर के मन में भी यह प्यास जगी, तृष्णा की अठखेलियां रंग लायीं तो संसार सरजा। प्यास तो तब की जगी होगी मगर अब भी बुझी कहां है। अब भी चालू है तृष्णा की आंखमिचौनी का खेल। जगी होगी परमात्मा के मन में छोटी-सी प्यास, एक तन्हाई भरी तृष्णा, मगर वह जंगल की आग की तरह बढ़ती ही गई। संसार हमेशा बना ही रहा। कोई एक मरा तो चार ने जन्म पाया, संसार हमेशा फैलता ही गया और इस संसार के बहाने वास्तव में ईश्वर का फैलाव होता गया। वह विभु रेवड़ियों की तरह घर-घर में बंट गया। अब भी बंट रहा है। जब तक इस तृष्णा का बोध नहीं होगा तब तक बंटने-बांटने की प्रक्रिया संसार में शाश्वत बनी रहेगी। ____ जब प्राणी मात्र का जन्म ही तृष्णा के बीज के साथ हुआ है, तो उसको जिन्दगी में तृष्णा
का होना कोई अचम्भे की बात नहीं है। तृष्णा हमें खून से मिली है। हम तो मात्र तृष्णा के वंशज हैं। हमारे मां-बाप में भी तृष्णा थी, मां-बाप के मां-बापमें भी तृष्णा थी और उनके मांबाप में भी तृष्णा थी, सबके मा-बाप में तृष्णा थी। इस दुनिया के पहले जो मां-बाप थे उनमें भी तृष्णा थी। यह संसार और कुछ भी नहीं मात्र हमारे प्रथम मां-बाप की तृष्णा का फैलाव है। जब तक तृष्णा जिन्दी रहेगी तब तक फैलाव जारी रहेगा। जिसने अपनी तृष्णा की लुग्दी बना दी, उसने सत्य को समझ लिया, अपने आपको पहचान लिया। वास्तव में इस स्थिति को पाने का नाम ही सम्बोधि है।
जिन्होंने अभी तक संबोधि की फूटी किरण भी नहीं देखी, वे संसार में फैलते चले जा रहे हैं। जैसे आसमान फैलता है, वैसे ही उसका संसार फैलता है। उसका आसमान किसी भी क्षितिज में छोर नहीं पाता, वह क्षितिजों के पार क्षितिज ही पाता है। उन्हें लोभ है माटी का, सम्मोहन है नश्वर का, आकर्षण है क्षणभंगुर का। उन्हें तृप्त कहां करा पाती हैं संसार की सम्पत्तियां। प्यास कहां बुझा पाता है सात समन्दर का नीर! वह यों प्यासा रहता है, जैसे
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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