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________________ जब उल्टा चलाता हूं, तो यह सीधा चलता है। इसलिए मैने इसे चलाना - हांकना छोड़ दिया। जिधर यह जा रहा है, उधर ही मैं चला जाऊंगा। कम-से-कम फजीती तो नहीं होगी। लोग यह तो नहीं कहेंगे कि तुम गधे से भी गये बीते हो। हम अपने बारे में सोचें कि हमारी यात्रा कैसी है? हम जैसा चाहते हैं वैसा गधा चलता है या जैसा गधा चलता है वैसा हम चाहते हैं। अगर आप गधे के आधार पर अपनी चाह 'बनाते हैं तो आपकी संसार में कोई मंजिल नहीं है, कोई किनारा नहीं है, कोई क्षितिज नहीं है। आप जिस मंजिल पर पांव रखेंगे वह मंजिल नहीं होगी, अपितु भटकन होगी। आपको हर किनारे के पार फिर किनारा मिलेगा। सागर के पार फिर सागर मिलेगा। क्षितिज के पार फिर क्षितिज मिलेगा। आपकी सारी यात्रा फैलाव की यात्रा होगी। आप पा पा कर भी खोते जायेंगे। आपका पाना किसी दृष्टि से पाना होगा, पर वह पाना पाना नहीं, अपितु फंसाना है। आप सबको पा लेंगे, सारी दुनियां को पा लेंगे, मगर खुद को खो बैठेंगे। यही तो है संसार के फैलाव का प्रतिफल । संसार का फैलाव यानी लोभ का फैलाव है। इच्छाओं का विस्तार है, मन को बढ़ावा है, दुनियां को प्रोत्साहन है। मनुष्य ज्यों-ज्यों उपलब्धियां अर्जित करता है, त्यों-त्यों उसका फैलाव बढ़ता जाता है। नदी में जितना पानी आएगा उसका पात्र उतना ही चौड़ा होगा । कहते हैं— सुवण्ण रूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु कैलास समा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगास समा अणंतिया।। बड़ा सुन्दर सूत्र है यह। मानव की मनोवृत्ति इस सूत्र में झलकती है। कहा गया है, कदाचित् सोने और चांदी के असंख्य पर्वत भी हो जायें तथापि लोभी पुरुष को उनसे कुछ नहीं होता ! क्योंकि इच्छा आकाश ज्यों अनन्त है। हमारी इच्छाएं आकाश की तरह अनन्त हैं, यह केवल कहने भर को नहीं है, अपितु एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग है । मन तो लहर की तरह है। उसमें थिरकन है। बिना पैदे के लोटे की तरह लुढ़कता रहता है और एक बात पक्की है कि लुढ़कने वाले को कभी कुछ मिलता नहीं है। 'रोलिंग स्टोन गेदर्स नो मास' जो टिकेगा ही नहीं वह पाएगा कहां से। जो व्यापारी अपने फैसलों को बार-बार बदलता रहता है क्या उसकी साख बाजार में जम पायेगी ? जो मन लुढ़कता है वह लक्ष्य की वैशाखी के बिना चलने की कोशिश करता है। मन तो तृष्णा संसार और समाधि 59 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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