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________________ वह उतना ही बटोरता जाएगा । दातार कभी कंजूस नहीं बन सकता और कंजूस कभी दातार नहीं बन सकता है। सज्जन हमेशा सज्जनता के फूल बिखेरगा तो दुष्ट दुष्टता के कांटे ही छेदेगा। आखिर ऐसा क्यों होता है? यह इसीलिये होता है, क्योंकि मनुष्य का अन्तरव्यक्तित्व ऐसा ही है। मनुष्य तो फैलता चला जा रहा है जी - जीकर नहीं, अपितु मर-मरकर, संघ-संघ कर नहीं, अपितु टूट-टूट कर अपनी चाह को, अपनी एषणाओं को मिटाने के लिए, उसकी आग को बुझाने के लिये, इन्सान जिन्दगी भर जूझता रहता है पर उसकी तृष्णा मात्र मृगतृष्णा बनकर रह जाती है। वह पा पा कर भी अपने को खोया-खोया समझता है। आइने - से ख्वाब मेरे, रेजा रे जा हो गए। मैं तिलिस्मे-बेहिसी को तोड़कर निकला न था। सिलसिला -दर- सिलसिला है, सब सराड़े ज़िन्दगी । ज़हर चखने का यह दोस्तों तजुर्बा पहला न था। इन्सान ऐसा ही है, चेतना की कमी का जादू तोड़ नहीं पाता। तभी तो उसकी आशाएं आइने की तरह टूट-टू कर बिखर गई । और यह बिखरने का क्रम सदियों सदियों से है, सदा से है। 'सिलसिला दर सिलसिला है सब सराबे ज़िन्दगी । ' जीवन तो मृग-तृष्णा है और उसकी मृग-तृष्णा का सिलसिला जारी है। इस सिलसिले में कहीं यह धोखा मत खा जाइयेगा कि मैंने यह जहर का घूंट पहली दफा पिया हो । जहर चखने का यह पहला तजुर्बा नहीं है। हम विषपायी आदी हैं विषपान के। जहर भी इतना पिया है कि अब तो जहर के बिना जिन्दगी की खुशियां अधूरी लगती हैं। तनाव का जहर बुरा ज़रूर है, पर उसे छोड़ने की कोशिश भी तो पूरी नहीं है। फल यह होता है कि हम संसार के मलवे में धंसते चले जा रहे हैं। मुक्ति की पगडंडी ओझिल हुई जा रही है। धन, वैभव, सत्ता, अधिकार से हम जुड़ते चले जा रहे हैं। अब ये हमारे अधिकार में नहीं है। इनका हम पर अधिकार हो गया है। जहर उस समय जहर नहीं रहेगा, जब हमारा इन पर अधिकार होगा। हमने ऐसा अभ्यास बना लिया है कि इनका बोझा हमें बोझा नहीं लगता, ठीक वैसे ही जैसे 'गोद' लिया बच्चा । एक आदमी गधे पर चला जा रहा था। किसी ने पूछा, कहां जाते हो ? बोला, जिधर यह गधा जा रहा है। पूछा, क्या मतलब? तो वह आदमी बोला, मतलब यह है कि मैं गधे को दायें चलता हूं, तो वह बांये चलता है। मैं सीधा चलाता हूं तो यह उल्टा चलता है और संसार और समाधि 58 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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