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इसलिए आदमी बाहर को कितना भी बटोर ले, मरते दम तक बटोर ले, जन्मों-जन्मों तक बटोर ले, फिर भी बाहर को बटोर नहीं पाएगा । जिन्दगी भर धन कमा ले, सोने और चांदी के कैलाश रच ले, फिर भी न तो पाने की आशा पूरी होगी, न चाह बुझेगी और न ही बाहर की सीमा रेखा मिलेगी। इन्सान भी है ऐसा कि उसे सोने और चांदी के शैल-शिखर मिल जाएं, दो चार नहीं, सौ-दो सौ भी मिल जायें, तो भी उसे तृप्ति नहीं होगी। क्योंकि मन बड़ा लोभी है। ठग विद्या उसने जन्म-जन्मान्तर से सीखी है।
इसलिए मन की इच्छाएं हमेशा फैलती हैं। वह सारी दुनिया पर अपना अधिकार जमाना चाहता है, मानो दुनिया को उसी ने पैदा किया हो। हड़पने की गुंजाइशें तो बहुत हैं और एक दिन वह सारी दुनिया को हड़प भी सकता है, पर क्या करे, जीवन की डोर बड़ी छोटी है। अगर इन्सान की कभी मृत्यु न होती, तो उसका मन सारी दुनिया को एकन-एक दिन जरूर हड़प लेता । न होगा नौ मन तेल, न राधा नाचेगी। इन्सान के हाथों में वह अमराई की मेंहदी रची हुई ही नहीं है। यह मन का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। मन की हर को पूरा करने के लिए काश इन्सान अमर होता ।
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पर जब सत्य को गहराई से सोचता हूं तो लगता है कि अमरता भी इन्सान को तृप्त कहां करा पाती है। आखिर अमरता भी तो प्यास की एक कड़ी है, फैलाव का आयाम है। अमरता अन्तिम मंजिल नहीं है। यह तो फैलने की एक सफल कड़ी है। रावण की नाभि में तो अमृत इकट्ठा था। अमृत अमरता की अभिव्यक्ति है। अमृत पाकर आदमी शान्त नहीं होता, अपितु अमराई की ओट में राजनीतिक अशान्तियां ही ज्यादा फैलाता है। इसीलिए जब-जब भी इन्सान ने परमात्मा से अमरत्व का वर मांगा तो परमात्मा के लिये वह हमेशा उलझन ही बना। इन अमरों को मारने के लिए फिर परमात्मा को ही आना पड़ा। इसलिये जब विधाता किसी की भाग्य रेखाएं खींचता हैं, तो शेष रेखाएं तो बाद में बनाता है। पहली और आखिरी रेखा सबसे पहले खींचता है और वे रेखाएं जन्म-मरण की हुआ करती हैं।
परमात्मा मनुष्य की आन्तरिक कमजोरी जानता है। मनुष्य की आन्तरिक कमजोरी यह है कि उसे ज्यों-ज्यों सत्ता और सम्पत्ति मिलती है, त्यों-त्यों उसकी एषणा बढ़ती है। वह शान्ति से सो नहीं पाता, चैन की बंसी नहीं बजा पाता, आराम की ठंडी छांह में जी नहीं पाता । उसका तनाव और संघर्ष ज्यादा बढ़ता है। तनाव हमेशा तनाव को ही जन्म देता है । शान्ति हमेशा शान्ति को ही जन्म देती है। यह शाश्वत सत्य है - इसे हमेशा याद रखियेगा । दातार को जितना धन मिलेगा वह उतना ही बांटेगा, मगर कंजूस को जितना धन मिलेगा
संसार और समाधि
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- चन्द्रप्रभ
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