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है। इसलिए मन लोक-प्रवाह का एक अभियान है। पानी की तरह तरल है उसका स्वभाव। भीड़ भरे मेले में ले जाने के बाद मन का शिशु संयमित रह जाये, यह मुश्किल है। लोभी लालची जो ठहरा। हकीकत में मन बड़ा लोभी है। इसकी मांगें सफेद कागज पर सफेद खड़िया मिट्टी से लिखे आलेख हैं। सरकार इसकी मांगे पूरी नहीं कर सकती। मांग एक हो, तब तो पूरी भी हो जाये। यदि कोई आदमी आधी रात को सूर्य की मांग करे, तो पौ फटतेफटते उसकी मांग पूरी की जा सकती है। पर जिसकी मांगें एक पल में दिन की और एक पल में रात की होती है, उसकी कैसे पूरी हो सकती है। उसकी तो जोड़बाकी करने में गणित भी कतराएगा। उसकी तो एक दिन में ही असंख्यात मांगें हो गईं। वह सूर्य की रोशनी पाकर भी अंधेरी गुफाओं में ही भटकता है।
मन मनुष्य के पास तो एक ही होता है, मगर एक में भी विचारों की भीड़ भरी रहती है। कबाड़खाने की दुकान के पास से गुजरो, तो दुकान तो एक ही होती है, पर उसमें भरा होता है दुनिया भर का हर सामान। मन भी कबाड़खाना ही है।
मन की वृत्तियां ढेर सारी हैं। इसका संग्रहालय कितना लम्बा चौड़ा है। यही तो इसका संसार है। संसार का अर्थ ही होता है संग्रह। मन बहुतों का परिग्रहण करता रहता है इसलिए उसे संसार से लगाव है। इसका हर परिग्रहण क्षण-क्षण पाणिग्रहण करता है। अतः मन संसार की चाक है। संसार मन का घर है। यही उसके लिए मन्दिर है। मन को संग्रह-वृत्ति का नाम ही संसार है। वृत्ति अपने आप में संसार की अभिरुचि है। यह मन के तालाब में उभरी तरंग है। वृत्ति का जन्मना मन का कम्पना है। इसलिए निवृत्ति को महत्त्व दिया गया। निवृत्ति मन की कम्पनों से छुटकारा है। संसार की वृत्ति का नाम ही लोभ है और अलोभ में जीने का नाम ही निर्वाण है। लोभ संसार हैं और अलोभ निर्वाण। लोभ स्वयं को भीतर से बाहर लाना है और अलोभ स्वयं को स्वयं में बनाए रखना है। इसलिए लोभ का रास्ता अलग है और अलोभ का रास्ता अलग। एक मेले का रास्ता है और दूसरा घर का।
मेले की ओर जाना संसार की यात्रा है। घर की पगडंडी पकड़ना निर्वाण की याद है। मेले में जो लाभ दिखाई देता है, वह लाभ, लाभ नहीं, अपितु आत्मवंचना है। स्वयं का छलावा है। जहां दुनिया भर का लाभ हो जाये, किन्तु स्वयं की सिद्धि विलग रह जाए, तो वह लाभ कहां हुआ! दुकानदार के लिए तो लाभ ही शुभ है और ऋद्धि ही सिद्धि है। उसे प्रयोजन है केवल धन से, जीवन से नहीं। वह जीने के लिए धन नहीं कमा रहा है, अपितु धन कमाने के लिए जी रहा है। यों करके मनुष्य चंचल को बटोरने में शाश्वत को दांव पर लगा रहा है। संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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