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________________ आकर्षण सांसारिक जीवन में पदार्पण हेतु एक न्यौता है, लहरों में निमंत्रण है। विकर्षण तो संन्यस्त जीवन स्वीकार करने का अहोभाव है। आकर्षण है, इसीलिए हाथों में मेंहदी रचाई, बदन पर हल्दी लगाई, चंवरी सजाई, घर-गृहस्थी बसाई। विकर्षण इसके विपरीत है। सांसारिक कृत्यों से खित्रता पैदा हो गई। संसार का राग और रस भाया नहीं, तो हमारे पांव उस संसार में जमे नहीं। वे उस दलदल से निकलने के लिए उड़ान भरने लगते हैं, जिसमें सारी दुनिया दबी पड़ी है, रची-बसी है। दिन में आंख मूंदकर अंधेरा किये हुए हैं। ___ यों तो आकर्षण हर किसी का हो सकता है। क्योंकि इसकी सीमा-रेखाएं खींची हुई नहीं है। आकर्षण का सर्वोपरि केन्द्र स्त्री है। पुरुष तो अपने आप में अपूर्ण है। उसके पास मात्र पौरुष ही नहीं है, वह अर्ध नारीश्वर है। वह आधा नर और आधी नारी है। उसके एक ही शरीर में आधा शरीर शिव रूप है और आधा शरीर पार्वती रूप है। हर पुरुष और हर स्त्री शिव-पार्वती रूप है। यही कारण है कि मनुष्य के शरीर में रहने वाले पुरुष के गुणधर्म तथा स्त्री के गुण धर्म परस्पर आकर्षित हो जाते हैं। पुरुष और स्त्री का पारस्परिक आकर्षण वास्तव में समधर्मी गुणों का आकर्षण है। एक बार यों ही जिक्र चल पड़ा कि इन्सान शाश्वत मार्ग को जानते हुए भी उस पर अपने कदम क्यों नहीं बढ़ा पाता है। मेरा ऐसा मानना रहा है कि आकर्षण ही वह बाधा है जो इन्सान को शाश्वत और सत्य मार्ग पर चलने से रोकता है। और उस आकर्षण में सबसे बड़ा आकर्षण उसका स्त्री के प्रति होता है। आखिर पुरुष का पौरुष वासना के कारण कलंकित और व्यथित है। ___ स्त्री-राग आकर्षण की प्रगाढ़ता का प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य संसार में रहता ही स्त्री राग के कारण है। व्यक्ति मां को छोड़ सकता है, पिता और पुत्र को छोड़ सकता है, धन और वैभव को भी छोड़ सकता है, किन्तु पत्नी को! मुश्किल है। सौ में निन्यानवें लोग मां-बाप से अलग घर बसाकर जी जाते हैं, पर पत्नी से अलग होकर जीने वाले लोग एक प्रतिशत भी नहीं हैं। यौवन का उन्माद युवावस्था में तो हठीला होता ही है। बुढ़ापे में भी होता है। युवावस्था में तो चिड़िया की उड़ान होती है और बुढ़ापे में पेंढक की फुदफुदी। युवक यौवन को अंगीठी है और बुढ़ापा राख में दबा अंगार है। हिसाब से ज्यों-ज्यों व्यक्ति बूढ़ा होता जाता है, त्यों-त्यों उसका स्त्री-राग और स्त्रीआकर्षण भी बूढ़े-से-बूढ़ा होना चाहिये था, पर ऐसा होता नहीं है। ज्यो-ज्यों बुढ़ापा संसार और समाधि 53 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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