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________________ स्त्री के लिए स्त्री स्वधर्मी है और पुरुष के लिए पुरुष। पुरुष के लिए स्त्री विधर्मी है और स्त्री के लिए पुरुष। स्वयं के धर्म से भिन्न किसी धर्म का अस्तित्व ही विधर्मी है। यह ठीक वैसा ही है जैसे दूध और जल। जल में जल को मिलाना स्वधर्म है। जबकि दूध में जल का मिलाना विधर्म है। जल में जल को मिलाने का नाम मिलावट नहीं है, अपितु दूध में जल को मिलाने का नाम मिलावट है। जिन्होंने अपनी जिन्दगी में हंसदृष्टि/भेदविज्ञान दृष्टि पा ली है, वे ही समझ सकते हैं इस मिलावट के रहस्यवाद को। तत्त्वज्ञानियों ने स्वयं से जुड़ने का नाम धर्म दिया है। उनके अनुसार पर से जुड़ना विधर्म है। वे पर के आकर्षण को, पर के योग को, पर की शरण को, पर की आस्था को विधर्म ही मानते हैं। पर का आकर्षण मात्र विकर्षण है। वह आकर्षण भी विपरीत का है, विपरीत से है। जब खुद का खुद से आकर्षण होगा, खुद में खुद का विचरण होगा, वही ब्रह्मचर्याहोगी। चालू भाषा में यही ब्रह्मचर्य है। संसार को आकर्षण-विकर्षण के बीच बहती-उफनती जलधारा है। हमारी नौका है मझधार में, अधर में। हमारा भविष्य अटका है भंवर में। शाश्वतता का किनारा है सागर के उस पार। आंखें उसे देख नहीं पातीं, क्योंकि इन्सान खड़ा है सागर के इस पार। इन्सान उस पार को पाने के लिए पतवार खूब चलाता है। पतवार को चलाते-चलाते स्वयं पसीने से तर-बतर हो जाता है। थकावट से स्वयं को चूर-चूर महसूस करने लगता है। मैं चौंक रहा हूं इसलिए कि वह अभी तक भी कहीं पहुंचा नहीं है। पहुंचे तो तब, जब खोले नौका के लंगर। लंगर को आखिर बांधा खुद ने ही तो है। लंगर से उसे इतना प्यार हो गया है कि उसे खोलना तो दूर, उसे ढीला करना भी उसके लिए झटके जैसा है। लंगर बंधन है और बंधन का आकर्षण मुक्ति के आकर्षण से कहीं ज्यादा प्यारा लगता है। संसार तो बस इसी आकर्षण-विकर्षण के ज्वार-भाटे से सजा-घिरा दरिया है। जिसे समझना है संसार, वह समझे उसका आधार। संसार का पेण्ड्ल म डोल रहा है। डोलायमान दशा है इसकी। इसीलिए तो भटकाव की घड़ी चालू है। पेण्ड्ल म चलता है कभी दाएं, तो कभी बाएं। कभी आकर्षण की ओर, तो कभी विकर्षण की ओर। ध्यान से देखो पेण्ड्लम को अधर में ही भटका है। संसार का झूला गतिमान है, कभी इधर, कभी उधर। और जीव है अधर में। आनंद जरूर मानते हो झूलने में। पर सत्य यह है कि इन्सान स्वयं, स्वयं को ओझल करने की चेष्टा कर रहा है इधर-उधर के दायरे में, आकर्षण-विकर्षण की खींचातानी में। संसार और समाधि 52 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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