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आगे बढ़ गये ऋषि-मर्यादा से। क्योंकि उस विरह ने ऋषि को आकर्षित किया, व्यथित किया, ऋषि-दृष्टि को परिवर्तित किया।
विरह तब मूर्त होता है, जब एक राह दो हो जाती है, नदिया का एक प्रवाह दो अलगअलग ढलानों में बहने लग जाता है। मिलन में साथ-साथ रहना है, विरह में अलगाव सहना है। आकर्षण दोनों में है।
मिलन-विरह के गीत बनते टूटते हैं आकर्षण-विकर्षण में। पुरुष और स्त्री मिलनविरह के आयाम हैं। आकर्षण के यही दो पहलू हैं। संसार के भी ये ही दो अंग है। संसार का अस्तित्व है ही इन्हीं के कारण। सांसारिक आकर्षण-विकर्षण का सारा आधार इन्हीं से जुड़ा है। ये दोनों जीवन-रथ के दो पहिये कहे जाते हैं। कहते हैं कि एक पहिये से गाड़ी नहीं चला करती।
संसार की यह एक सहज लीला है कि पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण है और स्त्री का पुरुष के प्रति। इस आपसी आकर्षण के नाते ही संसार चलता है। यह आकर्षण स्वधर्मी नहीं है। यह विपरीत का आकर्षण है। यह आकर्षण भी एक उलटबांसी है। पुरुष और स्त्री एक दूसरे के उलटे हैं, विपरीत हैं। और यह विपरीत का आकर्षण ही भटकाव है, माया है, मिथ्यात्व है, तृष्णा है, वासना है।
पुरुष कभी पुरुष को झांकता नहीं फिरता। पुरुष की पुरुष से दोस्ती हो सकती है, गलबांही हो सकती है, पर पुरुष कभी पुरुष के लिए न्यौछावर नहीं हो सकता। स्त्री कभी स्त्री के प्रति समर्पित नहीं होती। वह हमेशा पुरुष के प्रति ही समर्पित होती है। बहू कभी सास को साथ लेकर अपना घर अलग नहीं बसाती। पुरुष कभी अपने पिता को साथ लेकर अपना घर अलग नहीं बसाता। पति पत्नी को लेकर अपना घर बसाता है और पत्नी पति को लेकर। यह आकर्षण का परिणाम है। व्यक्ति अपने माता-पिता से अपना घर अलग बसाता है, मात्र स्त्री के आकर्षण के बल पर। __ आकर्षण व्यक्ति को आकर्षक के प्रति समर्पित कर देता है। इसी के बलबूते पर ही तो लोग फिदा होते हैं। पुरुष आकर्षण को पाने के लिए संघर्ष करता है, अपने अधबुझे क्षत्रियत्व को जगाता है। स्त्री आकर्षण के प्रति समर्पित हो जाती है। समर्पण स्त्री का जन्मजात वैभव है। पर महत्त्व न स्त्री का है, न पुरुष का। महत्व मात्र आकर्षण और विकर्षण
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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