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________________ कहते हैं कि ऊंटों के ब्याह में गधे बैंड बजा रहे थे। दोनों एक-दूसरे के गुण बखान रहे थे। गधे ऊंट-वर को कह रहे थे अहो रूपम्, अहो रूपम्। क्या रूप है तुम्हारा ! चांद जैसा मुखड़ा है ! अरे ! किसी हीरो से कम हो ! और आपको पता है ऊंट महोदय क्या कह रहे थे ? वे भाईजान कह रहे थे, वाह ! अहो ध्वनि ! क्या सुरीली तान है ! बुलबुल के तरानों से भी मधुर ! संगीत के असली खजाने तो तुम्हारे ही पास हैं। दोनों एक-दूसरे को ऊपर चढ़ा रहे थे, बिना सीढ़ियों के । संसार भी ऐसा ही है । संसार हमें ऊपर चढ़ा रहा है और हम संसार को ऊपर चढ़ा रहे हैं। बिचारे ऊंट पर गधे को चढ़ाते तो चल भी जाता । पर स्थिति बड़ी नाजुक है। गधे की बजाय ऊंट को बिचारे गधे पर चढ़ा दिया गया है। वह देखो जा रहा है ढेंचू-ढेंचू करता, भारी भरकम बोरा लिये हुना गा इसलिए मैं तो यही कहूंगा कि संसार की कविता को आप समालोचक बनकर पढ़ें, पाठक बनकर नहीं। ओस की बूंद को मोती की उपमा देना केवल कवियों का ही स्वभाव नहीं है, अपितु संसार का भी है। संसार चार्वाक है। संसार से बड़ा कवि-मानस त्रैलोक्य में नहीं है। इसका रस, इसके अलंकार दुनिया के सारे काव्यशास्त्रों से ऊंचे हैं, जुदे हैं, अपने आप में अपने ढंग के हैं। ܢ काव्य रसप्रद होता है, पर बोझिल भी होता है। हर वाक्य रसात्मक नहीं होता। हर काव्य में ढेर सारी पंक्तियां नीरस और भारभूत होती हैं। संसार भी एक काव्य है। इसलिए रसमय होते हुए भी नीरसता और बोझिलता इसमें भी है। पर पत्ते की बात यही है कि वह भारभूत होते हुए भी सरदर्द नहीं लगता। लोग उसे कंधे पर उठाए चलते हैं, आंखों में रमाए चलते हैं। दर्द की बोझिलता कौन चाहता है, पर क्या करे, उसका भार भी ढोना पड़ता है । जिन्दगी है, तो बीमारियां भी प्राणों में रसी-बसी होंगी। - संसार का आकर्षण-धर्म है ही ऐसा। आकर्षण चाहे सही हो या गलत- पर हर किसी को लुभाता है। क्या आपने किसी विरहिनी को नहीं देखा ? प्यार सुख के लिए ही किया जाता है, पर विरह की वेदना भी उसी सुखकारी प्यार की ही एक अन्तर अभिव्यक्ति है। आकर्षण की दृढ़ता मिलन में नहीं, विरह में है । रामायण - काव्य का जन्म विरह की वेदना से हुआ। क्रौंच दम्पति के विरह और मरण ने ऋषि को भी आकर्षित कर दिया। ऋषि, ऋषि होते हुए भी शाप दे बैठे। वे चार पांव संसार और समाधि 50 - चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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