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कुछ भी हो, एक बात तय है कि संसार बड़ा आकर्षक है। किन्तु वह मधुरिम और शीतल ही हो, ऐसा नहीं है। आकर्षण केवल मित्र का ही नहीं होता, अपितु शत्रु का भी होता है। सत्य तो यह है कि मित्र से भी ज्यादा आकर्षण शत्रु का होता है।
हमारे दिल-दिमाग का यह एक स्वाभाविक गुण है कि वह सदा उसीके प्रति समर्पित रहेगा, जिसका उसे आकर्षण होता है। जब हम एकान्त में अकेले बैठे रहते हैं, तब हमारा मन कुछ-न-कुछ सोचता रहता है। वह जो सोचता है, वास्तव में किसी के प्रति आकर्षित होने के कारण सोचता है। उसके मन में या तो मित्र के भाव होंगे या शत्र के। वह दो में से किसी एक के बारे में सोचता रहेगा। मित्र के विचार गायब होते ही शत्रु के आ जायेंगे, पर शत्रु के विचार निकालते दिमाग को झक-झोरना पड़ता है, समझाना पड़ता है, मनाना पड़ता है। उसे आप जल्दी से समझा भी न पाएंगे। वास्तव में यह उसका शत्रु के प्रति आकर्षण हो गया। इसलिए वह अपने सारे चिन्तन के कबूतर शत्रु के आकाश में उड़ायेगा।
शत्रु का आकर्षण वह आकर्षण है, जो व्यक्ति को सदा जागरूक और सचेत रखता है।
आकर्षण विपरीत का भी होता है। सच यह है कि संसार जीता ही है विपरीत के आकर्षण में। विपरीत के आकर्षण के संयोजक का नाम ही संसार है। विपरीत को आलिंगन देने का नाम ही विधर्म है और हमारा यह विधर्म ही संसार का धर्म है।
संसार जैसा जादूगर, संसार जैसा सर्जक दूसरा है कौन दुनिया में! इसकी उलटबांसियों से भगवान् भी चकरा जाये। वे भी इसकी माया के बोरे में कैद हो जायें। मान लें, कभी सरज लिया होगा भगवान् ने संसार को, पर सरजने के बाद उसे मिटाते भगवान् का भी खूनपसीना एक हो जायेगा। संसार के पास जब तक शकुनि जैसे नीतिकार बैठे हैं, तब तक वह भगवान् की हर विदुर-नीति को मात देता रहेगा। बिचारे शकुनि ने तो एक ही परिवार में महाभारत रचाया, संसार ने तो घर-घर में महाभारत को फैला दिया। हिम्मत हो, तो सामने बोलकर देखो, सिर फुटोव्वल तैयार।
संसार का मुकाबला करोगे? अरे यह बड़ा विचित्र कवि है, इसके फाके में मत आ जाना। यह आपके गोरे चेहरे को कभी भी कीचड से पोत सकता है और गधे पर चढ़ाकर अंधेरी-उजली गलियों में घुमा सकता है। यह गधे को घोड़ा बना सकता है और घोड़े को गधा। 'अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा' ऐसा है संसार।
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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