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________________ संसार भागते चोर की चोटी ही पकड़ लेता है। वह और कुछ नहीं, तो उसका नाम ही फैला देता है। मूर्तियां बनाकर खड़ी करवा देता है। निराकार को आकार में ढाल देता है। लोग आते हैं, मूर्ति पूजते हैं, भगवान् की सेवा करते हैं और स्वयं के स्वार्थों तथा सुखों के लिए आशीर्वाद मांगते हैं। भगवान् तो करुणा-भण्डार होते ही हैं। लोगों को आशीर्वाद मिल जाता है। लोग फिर फलने-फूलने लगते हैं। संसार इसे अपना अहोभाग्य समझता है। कारण, लोगों का फलना-फूलना वास्तव में संसार का ही फलना-फूलना है। देखते नहीं हो, कितना खुश है संसार! खुजली खुजलाकर भी खुश है, मवाद को रिसते हुए देखकर भी खुश है भला, बुद्धिनिधान को कौन समझाए, कि तेरी खुशी के चन्दनवन में वेदनाओं के कितने अजगर पल रहे हैं। उसे समय ही कहां है विपरीत को समझने का? वह तो स्वयं ही आकर्षित है अपने आकर्षण-धर्म से, अपने अदबुदे कर्म से। ___संसार हमें अपनी ओर खींचता है, सो तो ठीक है। किन्तु वह क्यों खींचता है, इस पर हमें कुछ सोचना चाहिये। ___मुझे तो लगता है कि संसार हमें जितना अपनी ओर खींचता है, उतना ही हम भी संसार को अपनी ओर खींच रहे हैं। चुम्बक दोनों ओर से चूम रहा है। इसीलिए खिंचाव है, लगाव है। संसार के साथ हमारा नाता सदियों से है। शायद शाश्वतिक है। इसके गर्भ में हम अब तक पता नहीं कितने अवतरे हैं, कितनी बार जन्म पाया है। इसकी गोद में हमने अब तक न जाने कितनी किलकारियां मारी हैं। पता नहीं, इसके घुटने पर कितनी बार हमने अपना माथा टेककर नींद ली है और कितनी बार चिता सजाई है। फिर भी मृत्यु कहां हो पाई है! गया कई बार, अनन्त बार, पर हर बार लौटकर वापस आ गया। भला जिसके साथ जन्मोंजन्मों का रिश्ता है, उसके प्रति आकर्षण क्यों न होगा! दो दिन के रेल सफर में हम लोग किसी अनजाने आदमी से घुलमिल जाते हैं, अपने पेट की अकथ्य बातें भी कह डालते हैं, तो जरा सोचिये कि जिस संसार से हमारा जन्मजन्मान्तर का सम्बन्ध है, उसके प्रति हमारा आकर्षण कैसा होगा! कितना सघन होगा! कितना प्रगाढ़ होगा। अगर कोई उसे तरल भी कहे, तो भी कोई आपत्ति नहीं, पर वह तरलता पानी या तेल की नहीं है, वरन घी की है। यह वह तरलता है, जो तरलता में प्रगाढ़ता की कमीज पहने है। संसार और समाधि 48 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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