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________________ करते हैं, वे जीवन की उलझन हैं, समस्या है। जब समाधान ही समस्या बनकर उपस्थित हो जाता है, तो व्यक्ति ढूंढ नहीं पाता है जीवन के चौराहे में आगे बढ़ने का रास्ता। वह रोता है, घुटता है। क्या यही उसके भाग्य में लिखा है? क्या यह वह जरिया नहीं है, जो उसे अधर आकाश में ले जाकर अटका देता है? व्यक्ति को तोड़ो मत। उसकी निष्ठा को धूमिल मत करो। एक बार घड़े को तोड़ देंगे, तो टूटे हुए घड़े को फिर उन्हीं सांचों में न ढ़ाल पाओगे। सोने के कंगन, चूंघरु अगर टूट जाये तो फिर से जुड़ सकते हैं, पर व्यक्ति चलता है निष्ठा से, प्रेम से। ये मोती हैं और मोती टूट जाने पर नहीं जुड़ पाते। वह प्रेम और आत्मीयता और ही है, जो पारे के पिण्ड के समान सौ टुकड़ों में टूट जाने पर भी जुड़ जाती है। सचमुच, आज का इन्सान भीतर से दरक रहा है। उसके लिए जीवन के शाश्वत मूल्य धूल की कीमत के होते चले जाते हैं। संघर्ष में गर्क हो रहे हैं रिश्तों के मुर्दे। बदइंतजामी में फंसा इन्सान चाहता है ऐसी शान्ति, ऐसी तृप्ति, जो उसके आंसुओं को पोंछ सके, आत्मीयता के तौलिये से। .. आज हम और हमारा समाज द्वन्द्व की अश्रुगैस पी रहा है। हम भीतर-ही-भीतर एक दूसरे से टूटते चले जा रहे हैं। माटी सूकती चली जा रही है और हम कंकरों में बिखरते चले जा रहे हैं। काश, लोग इस बात को समझ ले। ___ हां, जो लोग अन्तरद्वन्द्व में फंसे हैं, उनको मेरा कहना है कि वे द्वन्द्व से न भागे। द्वन्द्व जीवन का संग्राम है। उससे भागना नपुंसकता है,भगोड़ापन है। द्वन्द्व जीवन का जहर नहीं, जीवन का मन्थन है। बिना द्वन्द्व की पगडंडियों से गुजरे प्रशस्त रास्ता मिलेगा भी कैसे? द्वन्द्व से गुजरना तो तपश्चर्या है। इसे धैर्य से सहो। द्वन्द्व को आप जितना झेलोगे, उतने ही द्वन्द्व के पार उतरोगे। द्वन्द्व जीनव का परीक्षण है। यह कसौटी है। इसलिये जो लोग द्वन्द्व में उलझे हैं, वे द्वन्द्व से भागने की कोशिश न करें। वे तपें, जियें, मरें, ख द्वन्द्व में। यही वह आग है, जो आपको सही सोना बनाएगी। आज नहीं, तो कल, पर एक दिन अवश्य। कालचक्र देखिये। कृष्ण-पक्ष हमेशा शुक्ल पक्ष की आशा को लिये आगे बढ़ता है। शुक्ल और कृष्ण काल-रथ के अगले-पिछले पहिये हैं। आपने द्वन्द्व सहा, आप सहनशील बने। जो लोग जिन्दगी में जितने उतार-चढ़ाव देखते हैं, वे उतने ही परिपक्व होते चले जाते हैं। ऐसे लोग ही होते हैं अनुभव-वृद्ध/ज्ञान-वृद्ध! संसार और समाधि 44 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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