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को गहराई से निहारा। वे परिचित थे स्वयं से जनमने वाले दुःखों से और दूसरों के दुखों से। यही कारण है कि उन्होंने दुःख की गहरी से गहरी चर्चाएं कीं।
नेहरु ने तो आरोप भी लगाया कि महावीर और बुद्ध ने भारत को दुःखवाद की बातें सुनाकर पंगु बनाया है। मेरी समझ से नेहरु गहराई तक नहीं गये।
मैं आपसे पूछता हूं कि आप डॉक्टर के पास जाते हैं तो क्या डॉक्टर आपसे यह पूछता है कि बोलो, तुम स्वस्थ हो ? नहीं। डॉक्टर तो सीधा यही पूछता है कि बोलो, तुम्हें क्या बीमारी है ? वह आपसे हाथ नहीं मिलाता, वह सीधा नाड़ी सम्हालता है। क्योंकि डॉक्टर का यही व्यवहार होना चाहिये। डॉक्टर को मालूम है कि मेरे पास वही व्यक्ति आएगा, जो बीमार है। न्यायालय में वही व्यक्ति पहुंचेगा, जो किसी उलझन में उलझा है।
महावीर और बुद्ध जीवन के सर्जन हैं। वे हर इन्सान की चिकित्सा करते हैं। उनके पास जाओ, तो वे सुख की मुरली नहीं बजाएंगे। वे सीधे दुःख का फोड़ा फोड़ेंगे। हमारे व्रणों को, घावों को धोएंगे। वे जो काम करने जा रहे हैं, जो बातें कहने जा रहे हैं, वे घावों को मिटाने जैसी हैं। वे गम के गीत नहीं, गम विसारने के गीत हैं।
जब डॉक्टर हमारे फोड़े को दबाएंगे, तो तकलीफ तो होगी । मवाद निकलेगा। खून बहेगा। मन पीड़ा से कराहेगा। सब कुछ होते हुए भी हमें उसे सहन करना पड़ता है। आखिर यही तो प्रक्रिया है, जिससे घाव मिटेगा, जड़ से मिटेगा। डॉक्टर का यह काम चाहे आपकी भाषा में बुरा हो, दर्ददायक हो, पर बिना इस प्रक्रिया के स्वास्थ्य लाभ नहीं हो सकता। रोगमुक्त होना स्वास्थ्य लाभ की अनिवार्य शर्त है।
महावीर ने, बुद्ध ने दुःख की बहुत चर्चाएं कीं। क्रोध, मोह, माया-लोभ की चाण्डालचौकड़ी को उस दुःख का कारण जाना और दुःख के रोगों के उन्मूलन के लिए प्रयास करते रहे। अपने अनुभवों की बैग थामे गांव-गांव, गली-गली घूमे और उपचार किया।
हकीकत तो यह है कि महावीर और बुद्ध ने भारत को पंगु नहीं बनाया। वह तो पंगु था, उसे चलने के लिए पैर दिये। उन्होंने भारत को दुःख नहीं दिया। अपितु दुख के कारण बताकर उससे छुटकारा पाने की बातें कहीं। महावीर और बुद्ध तो परम सुखवादी हैं। वे दुनिया को ऐसा सुख देना चाहते है, जिसमें दुख की जड़ें न हों। संसार के दुखों से छुटकारा पाने के लिए ही तो उन्हें मोक्ष ओर निर्वाण की लो जगमगानी पड़ी। किसी के पैरों में जूते पहनाने से पहले पैर में गड़ा कांट तो निकाल दो। जूता चलने में सहायक जरुर है, पर
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- चन्द्रप्रभ
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