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मैने कहा, गुस्ताखी माफ करें आपने जो प्रवचन दिया, वह आम लोगों के लिए तो ठीक था। कृपया आप अपने पर उस प्रवचन को घटाएं। आपने नारी की निन्दा की, और उसे करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। क्यों? क्या आपको अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी में नारी के बारे में ऐसा कोई अनुभव है? बोले, नहीं।
मैने कहा, आप जरा सोचिये कि पुरुष के लिए स्त्री ही मोक्ष में बाधा है तो स्त्री के लिए मोक्ष में क्या बाधा है! यदि मोक्ष में स्त्री बाधा है, तो यह दोष जितना स्त्री के माथे मंढता है, उतना ही पुरुष के माथे पर । हकीकत तो यह है कि पुरुषों ने ही स्त्री के मोक्ष में बाधाएँ डाली हैं। मेरी समझ से पुरुष के लिए मोक्ष में न तो स्त्री बाधा है, और न ही स्त्री के लिए पुरुष। स्त्री और पुरुष दोनों एक-दूसरे के विपरीत है और विपरीत के प्रति जो आकर्षण है, वही वास्तव में बाधा है।
जिस व्यक्ति को अनुभव है, वह तो उससे दूर नहीं हटा है और जो कभी नारी से प्राप्त होने वाले सुख-दुःख के पास ही नहीं फटका है, वह नारी का यों विरोध करे ? आप जिस विषय पर इतना कुछ कह रहे हैं, उसका निजी जीवन में कुछ-न-कुछ तो अनुभव होना चाहिये। आप व्यक्ति को ब्रह्मचर्य की सुवास देना चाहते हैं, तो पहले उसे यह अनुभव होना चाहिये कि मैने जो रास्ता अपना रखा है, वह दुःख का है। उसे अनुभव होना चाहिये कि काम - भोग दुःखकर है। पहले आदमी के दिमाग में यह तो बैठना चाहिये की रेत में से तेल नहीं निकलता। रेत में से तेल निकालना निरर्थक श्रम करना है। यह काम आखिर दुःख ही देगा।
बुद्ध ने इस गहराई को पहचाना। महावीर इस तथ्य की चरमसीमा तक गये। लोग कहते है जैनों के तीर्थङ्कर जन्म से ही ज्ञात- मनस्वी होते हैं, तो क्या उन्हें ज्ञान नहीं था कि कामभोग दुःखकर है? उन्होंने विवाह क्यों रचा ? लोगों का सोचना वाजिब है। ज्ञान रहा होगा उन्हें, पर वह ज्ञान आम था, व्यक्तिगत नहीं था। व्यक्तिगत अनुभूति तो तब हुई जब वे दुःख देने वाले साधनों के गलियारों से गुजरे।
बुद्ध जन्म से ही असाधारण थे। बोध की झलकें उन्हें जन्म से ही प्राप्त थीं। पर दुःख की गहरी अनुभूति व्यक्तिगत है, निजी है। हमारे दुःख को हम जितना गहरा अनुभव कर सकते है, उतना और कोई नहीं। अनुभव निजी हुआ करते हैं।
बुद्ध ने शादी की, रोगी देखे, मुर्दे देखे, जर्जर काया देखी, गर्भवती महिलाओं को देखा। तब कहीं जाकर आखिर अभिनिष्क्रमण हुआ। महावीर और बुद्ध ने दुःखी जीवन
संसार और समाधि
- चन्द्रप्रभ
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