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आ सांसों रो विश्वास नहीं, कद आती-आती रुक जावे। जीवण में झुकणों नहीं जाण्यो, बो जम रे आगे झुक जावे। एक कदम तो उठग्यो दूजो, कुण जाणें उठ पावे है। ओ तो चार दिनों रो चांदणियों, सुण फेर अंधेरी रातां है। थारी छतड़ी सारी चूवे है, ऐ सावण री बरसातां है। जो जागे है सो पावे है, जो सोवे सो पछतावे है।
यह देह तो माटी का ढेला है। माटी से उपजी है और जीवन भर माटी को ही संजोती है। आखिर जाकर भी माटी में मिलती है। फिर किस बात का गर्व ! शरीर का सम्मोहन क्यों ? उससे प्राप्त होने वाले अनुभवों के साथ स्वयं का तादात्म्य क्यों ?
देह तो हर समय दधकती है, जलती है। दधकना दुःख का परिचय-पत्र है, इसीलिए संसार में सारे जीव दधक रहे हैं, दुःख में सड़बड़ा रहे हैं। पर आदमी हैं ऐसा, जो दुःख को नकारता रहता है। पतंगा जानता है दीपक उसका मित्र नहीं, वरन काल-मुख है। फिर भी वह चकाचौंध के फाके में आकर दीपक की लौ में स्वयं को खतम कर देता है।
लोग साधना की पगडंडी पर बहुत जल्दी चढ़ जाते हैं। यह अच्छा जरुर है, पर यह चढ़ना किसी के बहकावे में आकर होता है। इसलिए उसकी साधना उसके लिए एक धोखा बन जाती है। पहले यह सोचें कि ऐसी क्या जरुरत है, जिसके कारण साधना करनी जरुरी हो गई है। बिना आवश्यकता के कोई काम करना ऊखल में सिर डालना है। साधना की पगडंडी पर कदम बढ़ाने से पहले कई भूमिकाओं से गुजरना पड़ता है।
तार-तार
जरा सोचें कि साधना क्यों की जा रही है ! सुख पाने के लिए साधना कर रहे हैं न आप! पर पहले यह तो निश्चत हो जाये कि मैं दुःखी हूं। जीवन के अन्तरंग में, में दुःख की अनुगूंज तो पहले पा लो। दुःख की अनुभूति हुई नहीं और सुख पाने के लिए निकल पड़े। अगर सुख मिल भी गया, तो आप पहचानेंगे कैसे कि यह सुख ही है। सुख की सही पहचान करने के लिए दुःख की सही पहचान अनिवार्य है।
कुछ दिन पहले मैं एक समारोह में निमंत्रित था। वहां कइयों ने प्रवचन - भाषण दिये। समारोह के बाद मैने एक प्रवचनकार से पूछा, आपने शादी की? वे बोले, मैं बचपन में ही साधु बन गया। मैं तो ब्रह्मचारी हूं। तो मैने पूछा, क्या आपके पिता भी साधु बने है ? उन्होंने कहा, नहीं। वे अभी भी गृहस्थी में है।
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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