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________________ मन के पार चलना ही अन्तरात्मा में आरोहण के लिए सिंगनल' पाना है। मैं तो मन से भी दो कदम आगे हूं। मुझे तो अभी तक पार करनी है कई सीढ़ियां। आत्म-स्त्रोत रुंधा पड़ा है मन, वचन और शरीर के तादात्म्य की काली चट्टानों से। चट्टानों को हटाना ही स्त्रोत के विमोचन का आधार है। सौन्दर्य-दर्शन के लिए पर्दो और बूंघटों का उघाड़ना अनिवार्य है। शरीर को अपने अनुशासन में रखने के लिए हठ-योग है और मन की वैचारिक फुदफुदी पर नियंत्रण पाने के लिए मंत्र-योग है। जिनका शरीर पर नियंत्रण है और विचारों पर अनुशासन है, वे बिना आसन और मंत्र-साधना के भी योगी हैं। सत्य तो यह है कि जीवन के बाहरी और भीतरी परिवेश पर नियंत्रण करना ही जीवन-योग से मुलाकात है। जीवनयोग हर योग से ऊंचा है। राज-योग जीवन-योग से दो इंच ऊपर नहीं है। जीवन-योग को साधने के लिए राज योग है। विपश्यना या प्रेक्षा भी जीवन-योग के लिए है। जीवन-योग का मतलब है उस तत्त्व से मिलन जो सिर्फव्यक्ति के जीते जी ही जीवित नहीं रहता, अपितु मृत्यु के बाद भी जिसका अन्त्येष्टि-संस्कार नहीं किया जा सकता। वह आत्म-तत्त्व ही जीवन योग का आधार है। मृत्यु के नाखून उसे खरोंच तक नहीं लगा पाते। मृत्यु सत्य नहीं, मृत्यु एक झूठ है। उसकी पहुंच चोलों के परिवर्तन तक सीमित है। मैं तो पार हूं मृत्यु की हर पैठ के। ___ शरीर, विचार और मन पदार्थ हैं, जबकि आत्माऊर्जा। अपनी ऊर्जा को अपने लिए समग्रता से उपयोग करना ही अन्तर-यात्रा है। इस यात्रा की शुरुआत है अपने आप से। मित्र! जरा पूछो स्वयं से--मैं कौन हूं? __ मैं कौन हूं-यह मंत्र नहीं है, यह जिज्ञासा है। मैं अहंकार का प्रतीक नहीं है, बल्कि मैं उस संभावना को संबोधन है जिसकी मौलिकता जीवन के नखशिख तक जुड़ी है। जीवन की एकाग्रता अपनी समग्रता के कन्धे पर मैं से ही फली-फूली है। मैं अहंकार से होता है। जहां भाषा अन्तर-जीवन से मैं की परिभाषा पूछती है, वहां तो उल्टा अहंकार दुलत्ती मार खा बैठता है; किन्तु जहां अहंकार का मस्तक झुकता है वहीं स्वयं से स्वयं की मौलिकता पूछने का भाव जन्मता है। ___ 'मैं पार है- मेरे शरीर से, मेरे विचार से, मेरे मन से। अन्तर में आरोहण मन, वचन और शरीर की हर गतिविधि के पार है, इसलिए अपने आपको यह पूछना मैं कौन हं, संसार और समाधि 151 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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