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________________ हृत्तन्त्री के तार-तार में 'मैं कौन हूं' के मार्के का संगीत त्वरा से झंकृत करना अहम् से जन्मे 'मैं' को खुली चोट है। यह चोट जीवन के मौलिक 'मैं' की खोज का प्रयास है। अपने आप से पूछा जाने वाला यह प्रश्न चैतन्य-दर्शन के लिए अपनी जिज्ञासा को प्रकट करता है। जीवन की देहलीज पर आत्म- जागरण का प्रहरी चौबीस घण्टे लगाना जरूरी है । साधना जीवन से अलग-थलग नहीं है। जीवन जीवन्तता का परिचय-पत्र है और जीवन्तता जागरण की सगी बहिन है। जागरण और जीवन्तता को आपसपुरी का व्यवहार बिना किसी नानुच के निभाना ही होता है। सोने का जागरण से कैसा संबंध ! दुश्मन को तो दूर से ही सलामी अच्छी है। शरीर के द्वारा ली जाने वाली नींद तो शरीर का भोजन है, किन्तु अन्तःकरणं द्वारा ली जाने वाली उबासियां प्रमत्तता की पृष्ठभूमि है। समाधि तो जागती हुई नींद का नाम है। समाधि एक ऐसी निमग्नता है, जिसमें जगी हुई नींद के सिवा कुछ भी नहीं बचता। समाधि को जीवन की परछाई बनाने के लिए हमें जागरूकता के साथ सम को जीवन का हृदय बनाना होगा। सम की जरूरत है जीवन में आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों में स्वयं को अनुद्विग्न और असन्तुलित होने से रोकने के लिए। सम का उपयोग है सन्तुलन के लिए। जीवन की जमीन काफी उबड़-खाबड़ है। रोडों और भाटों की किलेबन्दी यहां कदमकदम पर है। जीवन के मार्ग पर अवरोधक चिह्न आने नामुमकिन नहीं है, किन्तु उस अवरोधों से विचलित हुए बिना लक्ष्य की ओर बढ़ते चलना आत्म-संकल्पों के लिए साहसपूर्वक संघर्ष करना है। जीवन में आने वाली हर सफलता और असफलता, अनुकूलता और प्रतिकूलता की दायीं बायीं दिशाओं में स्वयं का अन्तर-संतुलन बनाये रखना ही समाधि की व्यावहारिकता है क्या तुमने नहीं देखा है बांस से बंधी रस्सियों पर नाच करते किसी कलाकार को ? दायेंबायें के बीच सन्तुलन ही जीवन के रस्सी नृत्य का आधार है। - इसलिए सम को जीवन का अभिन्न अंग बनाने वाला ही तनाव मुक्त शान्ति साम्राज्य में प्रवेश पाने का अधिकारी है। आखिर समाधि भी सम का ही विस्तार है । संवर भी सम से ही बना है। सम्यक्तव और सम्बोधि भी सम की गोदी में ही किलकारि भरते हैं। मन, वचन और काया की हर प्रवृत्ति के मध्य यदि सम को ही मध्यवर्ती बना दिया जाए, तो भौतिकता भी आध्यात्मिकता में लील जाएगी। मन, वचन, काया और कर्म का अन्तरात्मा से जगने वाला प्यार ही चैतन्य - दर्शन की प्राथमिक भूमिका है। संसार और समाधि 152 Jain Education International For Personal & Private Use Only - चन्द्रप्रभ www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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