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________________ ले जाए अनन्त तक और भीतर ले जाए शून्य तक। महाजीवन की भगवत् सम्पदा भीतर की शून्यता और बाहर की पूर्णता में है। पहल के लिए जरूरत है प्राणशक्तियों की भीतर में बैठक बनाने की। अन्तरशक्तियों को स्थितप्रज्ञ बनाने का नाम ही कुम्भक है।। ___ चैतन्य-शिखर की यह यात्रा हमारे व्यक्तित्व के क्रिया-तन्त्रों का सम्मान है। शरीर, मन, विचार, चित्त या मस्तिष्क सबकी धमनियों में आखिर मौलिकता किसकी है, मूलतः अन्दर कौन है, किसका प्रवाह है, इसके प्रति जिज्ञासा होनी ही चाहिये। जिसने यह जानने की चेष्टा की कि मेरा जीवन-स्त्रोत क्या है, मैं कौन हूं, वह सम्बोधि-मार्ग का पांथ है। जिज्ञासा संबोधि की सहेली है। समाधि तो वहां है, जिसकी स्वयं को जानने की चेष्टाएं सफलता का प्रमाण-पत्र ले चुकी हैं। समाधि वह तट है, जिसे पाने के लिए कई तूफानों से लड़ना पड़ सकता है। जो तूफान से जूझने के लिए हर संभव प्रस्तुत है, उसके लिए हर लहर सागर का किनारा है। समाधि का सागर जीवन से जुदा नहीं है। जीवन और समाधि के बीच कुछ घड़ियों/अरसों का विरह हो सकता है, किन्तु शाश्वत विरह के पदचाप सुनाई नहीं दे सकते। यदि मनुष्य कृतसंकल्प हो और अपने संकल्पों के लिए सर्वतोभावेन समर्पित हो, तो समाधि का नौका-विहार भंवर के तूफानी गट्ठों में भी बेहिचक होता है। ___ मुझे तो आखिर वो पाना है जो हकीकत में मैं हूं। उस 'मैं की उपलब्धि ही तो महाजीवन के द्वार का उद्घाटन है। यदि मैं की उपलब्धि में मृत्यु भी हो जाए, तो वह मेरे द्वारा मेरे ही लिए होने वाली शहादत है। अरिहंत मेरी ही पराकाष्टा है। और अरिहंत की मृत्यु, मृत्यु नहीं, वरन्, महाजीवन का महामहोत्सव है। मैं ऐसी ही मजार का दिया जला रहा हूं, जो जीवन को मृत्यु-मुक्त रोशनी दे। __ हमें पार होना है हर घेरे से, हर सीमा से, हर पर्दे से। आखिर असीम सीमा के पार ही मिल सकता है। सीमाओं के पार चलने के लिए स्वयं को दिया जाने वाले प्रोत्साहन ही जीवन का संन्यास है। यदि फैलाना हो तुम्हें अपने आपको, तो हाथ को ले जाओ अनन्त तक। यदि विस्तार से ऊब गये हो तो लौटा लाओ स्वयं के जीवन के महाशून्य में; बसा है जो शरीर के पार, विचार के पार, मन के पार। शरीर का तादात्म्य टूटना ही विदेह-अनुभूति है। विचारों द्वारा मौनव्रत लेना ही जीवन में मुनित्व का आयोजन है। संसार और समाधि 150 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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