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चोर अपने घुटने जमीन पर टेके, हाथ फैलाये, आकश की ओर मुंह किये हैं। वे पूछ रहे हैं प्रभो! यह संसार अध्रुव है, अशाश्वत है। इस संसार में हम ऐसा कौन सा कर्म करें, जिससे हम दुर्गति में न जाएं। हे प्रभो ! हमने जान लिया है इस संसार को । यहाँ हमने बहुत लूटपाट की, भोग भोगा, पर वे सब दुःख-दर्द के चाबुक साबित हुए। यहां सिवा दुःख के कुछ नहीं मिला। फूल मिलने से पहले भी कांटे हाथ लगे। फूल पाने के बाद भी कांटे मिले। स्वर्ग की कल्पनाएँ बनायीं, पर मिला नरक ही । सुख के फूल हाथ लगते लगते कांटे बन गये। आखिर, सुख के बादल कितनी देर रहेंगे। उमड़े, बरसे और खो गये। आकाश फिर नंगा-का-नंगा हो गया। जीवन में आखिर दुःख के अलावा मिलता ही क्या है। सुख सिर पर अखबारी छाँह है। दुःख तो चरम है। दुःख संसार का एक परम सत्य है, आर्य सत्य है।
एक बात पक्की है कि जीवन से चाहे सुख मिले या दुःख, पर हैं सभी क्षणभंगुर । कभी धूप, कभी छांह। कभी दिन कभी रात। मौसम की तरह बदलता है यहां सब कुछ। आप युगों की सोचते हैं। मैं तो कहता हूं हर पल नया युग है। संसार में सब कुछ नया है, हर पल बदला हुआ है। जो हैं, वे खतम होते चले जा रहे हैं। जो नहीं हैं वे आते चले जा रहे हैं। इसलिए संसार के सभी धर्मशास्त्रों का सार यही समझें कि इस समय जो तुम्हारे पास है, वह खतम हो जायेगा। सुख है तो सुख और दुःख है तो दुःख। सब बीत जायेंगे। लहरों की तरह हर कोई अनित्य है।
इसे यों समझें, एक बार एक राजा ने अपने प्रदेश के सभी बुद्धिमानों को बुलाया। राजा , ने कहा, मुझे जीवन में अपनाने के लिए एक सूत्र चाहिये। वह ऐसा सूत्र हो, जिसके सामने दुनिया भर के सारे सूत्र और सारे ग्रन्थ बौने हों पर वह सूत्र स्वयं सबसे छोटा हो ! उस एक सूत्र में दुनिया के सारे सूत्र आ जाने चाहिये।
बुद्धिमानों ने अपने-अपने शास्त्रों से एक-एक सूत्र चुनकर राजा को दिया। पर राजा को कोई सूत्र जचा नहीं। बड़ी झंझट खड़ी हो गई। राजा की जिज्ञासा अनसुलझी पहेली बन गई। राजा को सूत्र चाहिये। और किसी बुद्धिमान का बताया सूत्र राजा को दमदार न
लगा।
आखिर एक बुड्ढे सलाहकार ने राजा को सलाह दी, राजन् ! अपनी राज्य- सीमा के बाहर एक सन्त फकीर रहता है। वह बड़ा औलिया और फक्कड़ सन्त है । उसकी प्रज्ञा हुई है, बुद्धत्व उसकी लालिमा है। उसने शास्त्र न पढ़े हों, पर उसकी बातें बड़े-बड़े शास्त्रों से ऊपर हैं। मैं तो कहूंगा आप इस मामले में एक बार उस साधु से जरूर मिलें।
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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