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________________ अतीत के प्रति मूकता और वर्तमान के प्रति जागरूकता भविष्य के द्वार पर सहज दस्तक है। वर्तमान को नजरों से परखने के लिए ही मैने तरुवर के नीचे बैठने की सुधरी सलाह दी। तरु जीवन्तता है, हरीतिमा है। पत्ते-पत्ते में जीवन के गीत हैं तबले की थाप भी है, कण्ठ के आलाप भी हैं, नृत्य भी है। तरु साधक है। वह खुद भी साधक है। अतीत का संन्यासी और वर्तमान का अनुपश्यो है वह। कल को भूल बैठा है। वर्तमान का द्रष्टा बन भोग रहा है। भोग हो, पर द्रष्टा-भाव सध जाये तो वह भोग योग का विपरीत नहीं हो सकता। द्रष्टा हर क्रियाकलाप के बीच तटस्थ रहता है। तरु तटस्थ है। तटस्थता न्याय है। न्यायाधीश तटस्थता का ही पर्याय है। वह सत्य को देखता है। दोनों पक्षों के प्रति वह एकसम रहता है। वह सबकी सुनता है, देखता है, पर समर्थन मात्र सत्य का करता है। सत्य के लिए जान जोखिम में डालने वाले आखिरी दम तक जीवन-कलश में सत्य-सुधा भरते रहते हैं। सब कुछ होता रहे, किन्तु उस होने में-से मात्र सत्य की अनुमोदना हो तो वही सत्यार्थप्रकाश है। मैं यह न कहूंगा देखना छोड़ो, सुनना छोड़ों, सूंघना छोड़ों। क्योंकि ये क्रियाएं तो उस समय भी चालू रहती हैं जब समाधि 'चरण-चेरी' बन जाती है। इसलिए मैं कहूंगा पकड़ना छोड़नो। आंख बंद भी कर लोगे, कान में रूई डाल दोगे, तो भी मन देखेगा, सुनेगा, कहेगा। उसकी पहुंच बन्द आंखों में भी है और खुली आंखों में भी। हमारा दायित्व मात्र इनता ही है कि देखना ‘देखना' ही रहे। देखे हुए को अगर चित्त पर आमंत्रित/छायांकित कर दिया, तो वह देखना हमारी शान्त होती वृत्तियों का अतिक्रमण होगा। कमल कीचड़ में रहे, रहना भी पड़ेगा पर कीचड़ कमल पर न चढ़े इसके लिए आठों याम चौकसी रखनी बुद्धिमानी है। मुक्त बनें, मन से मुक्त बनें। वह आकाश बनें, जिससे सब कुछ अस्पृश्य रहता है। आंधी चले या मेघ गरजे. दिन उगे या रात पले, पर आकाश को उन सबका कहां स्पर्श! जिसमें कोई स्पर्श नहीं होता, वही मन-से-मुक्त है। रास-लीलाएं चलती रहें, तो रहें, पर व्यक्ति के चित्त पर वे न झलकें। द्रष्टाभाव में रहने के बाद होने वाली रास-लीला भी स्वयमेव उदासीनता को बुलाएगी। ऐसे ही तो होती है शून्य से शिखर की यात्रा। परम-जागरण परम सहकारी है शिखर की यात्रा के लिए। संसार और समाधि 134 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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