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________________ शमशान के करीब से गुजरते संत ने कहा, दुनिया सराय-खाना है। इसमें ठहरे राहगीर के लिए आंसू? उसके लिए नहीं, अपने लिए रोओ। यह तुम्हें तुम्हारी मृत्यु की सूचना है। ज्योति बुझे, उससे पहले अपनी सम्पदा के ढूंढ़िया बनो। यही तेरा पंथ है। दृश्यों का तांता खत्म हो गया। ये चार दृश्य चार-दिन की जिंदगी की फोटोग्राफी है। तरुवर के नीचे बैठे साधक ने सारे दृश्य को साक्षी बनकर देखा। आंखें खोली। उनमें एक मन्द मुस्कान थी। उस रहस्यमयी मुस्कान में अनुगूंज थी। ये ऐश के बंदे सोते रहे, फिर जागे भी तो क्या जागे? सूरज का उभरना याद रहा और दिन का ढलना भूल गये। धन, धरती, रूप, मजा में फंसा। कराहता मनुष्य सदा ऊंघ में रहा। पहचाना ही नहीं कभी अपनी ऊंघ को, नींद को। कार चलाना तो याद रहा, पर ब्रेक लगाना भूल बैठे। जन्म और जन्म-दिवस की स्मृति बनाये रखी, पर मृत्यु और मृत्यु-दिवस का सोच भी पैदा न हुआ। __ जीवन के सूरज का उपयोग वही कर सकता है, जो उसके उदय और अस्त दोनों स्थितियों को याद रखता है। जिन्दगी मृत्यु के करीब होती जाती है। यहां यात्रा भी मृत्यु है और मंजिल भी मृत्यु। मृत्यु तो मृत्यु है ही, पर जिन्दगी भी मृत्यु के लिए है। जन्म और जिन्दगी याद रहे, पर मृत्यु को बिसरा बैठे। अगर संसार से कुछ सीखे हो तो मरना ही होगा। मृत्यु ध्यान की पूर्णता है, समाधि की पहल है। मौत जीवन की नहीं, चित्त पर रोज-ब-रोज आते संस्कारों की धूल की करनी है। आदमी को रोज मरना ही चाहिए। हर अगला दिन जन्म है। कल और कल की बातें मर जाएं तो मानसिक और वैचारिक उठापठक की पकड़ ढीली होती जाएगी। हर अगले दिन आप नवजात शिश होंगे। यह हमारा सौभाग्य है कि हमें मात्र इसी जन्म की बातें याद हैं। यह ऊपर वाले की मेहरबानी है कि हमें पूर्व जन्म की बातें याद नहीं हैं। चित्त की पकड़ उस तक नहीं है, अन्यथा उस गये/बीते अतीत को चित्त से हटाने में बड़ी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। सोचें, जब एक जन्म के ही संस्कारों से शून्य होने में इतनी उठापठक करनी पड़ती है, तो जन्मों-जन्मों के चित्त-संस्कारों की स्वच्छता के लिए कितने लम्बे-चौड़े अभियान चलाने पड़ते। संसार और समाधि 133 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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