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________________ दृश्य उसकी बन्द आंखों में आ रहे हैं। मानों पाताललोक से कोई अजनबी जनम रहा है। वह ठहरा द्रष्टा, आते-जाते दृश्य तो उसके लिए ठीक वैसे ही हैं, जैसे बगल में हवा का झोंका | पहला दृश्य एक गर्भवती महिला जा रही है अस्पताल की ओर। बीच रास्ते में उसे प्रसव पीड़ा घेर लेती है। नवजात बच्चा रोने लगता है। आखिर रोते हुए ही तो सभी आते हैं। परिवार वाले आते हैं और जच्चे-बच्चे को ले जाते हैं। दूसरा दृश्य साधक देखता है एक ऐसे व्यक्ति को जो खांसता- खांसता चला जा रहा है। दो अंगुलियों के बीच सिगरेट थमी है। मुंह से दमघोंटू धुंआ निकल रहा है। छाती जल रही है। खांसी रुक नहीं रही है । पर सिगरेट और उसके धुएं का सम्मोहन कहां छूट पा रहा है ! वहीं लड़खड़ाता हुआ गिर पड़ता है। अस्पताल में, कानों में डॉक्टर के शब्द आते हैं— 'सिगरेट एक-दूजे के लिए नहीं, कैंसर के लिए । ' तीसरा दृश्य एक बूढ़ा चल रहा है। हाथ में लाठी, झुकी गर्दन, टेढी कमर, हांफती सांस । बूढे ने आगे बढ़ने के लिए इस दफा जैसे ही लाठी आगे रखी, लाठी के नीचे केले का छिलका आ गया। लाठी फिसली और बूढा गिर पड़ा। जैसे-तैसे सम्भल, खड़ा हुआ, फिर चलने लगा पर इस बार किसी से टक्कर लग गयी। आदमी ने कहा, बुड्ढे ! अंधे हो क्या? देखकर नहीं चलते? बूढ़े ने कहा, बूढ़ा हूं। मेरी आंखें कमजोर हैं। पर तुम तो जवान हो । सही आंखें होते हुए भी टकराने वाला सूरदास है। चौथा दृश्य वह अनन्त का यात्री निरपेक्ष था। यात्रा मौन थी, लोगों की दर्द भरी आवाज के बीच | पांथ अकेला था साथियों के कन्धे पर। नयन मुंदे थे भीड़ की खुली आंखों में। स्वयं एड़ी से चोटी तक सजा था, संगी-साथी उघाड़े थे। जीवन संगिनी विदाई दे चुकी थी घर की देहरी पर | टिकट मिल चुका था। शमशान में डेरा लग गया। सब जला रहे थे, वह जल रहा था। साथ में वे कोई न जले, जिनके लिए उसने अपना जीवन जलाया । संसार और समाधि 132 Jain Education International For Personal & Private Use Only - चन्द्रप्रभ www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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