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________________ पर कैंची चलाना है। उसे जीना होता है शिखर पर। शिखर से अभिप्राय है संसार से ऊपर। फिर चाहे हल्दी घाटी में तलवारें चलें या कुरुक्षेत्र में चक्रव्यूह रचे, पर साधक इन सबसे बेखबर होगा। वह अप्रभावित रहेगा। सारे दृश्य होंगे, मगर वह दृश्य का ग्राहक नहीं होगा। दर्शक देखता है, अभिनय नहीं करता। विश्व को चलचित्र की भांति मूकदर्शक बने देखना ही अन्तरजागरण की पहल है। ____मन भी अपनी चंचलता दर्शाता है, पर द्रष्टाभाव को मक्कम कर लो तो मन हमारा नौकर होगा। मन में पचासों विचार चलते हैं। वह घोड़े की तरह ख़ुदी करेगा ही। मन के मुताबिक करेंगे तो यह कहा जाएगा कि हम किसी और के कहे में आ गए। मन के अनुसार कृति की, तो हम पर केस चलेगा। द्रष्टा और दृश्य में भेद रखा, मन से विलग रहे, तो कहां रहेगा सजा से संबंध! मन का मानना तो आसमान में थेंगले लगाना है। उदासीनता हो, तो दर्शन, गमन, स्पर्शन होते हुए भी कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी। वह क्रिया कभी बन्धनकर नहीं होती, जिसके प्रति अन्तर में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है। प्रतिक्रिया से मुक्त होने का नाम ही ध्यान-सिद्धि है। धन-धरती वगैरह के प्रति आसक्तिमूलक या घृणामूलक प्रतिक्रियात्मक रवैया अपनाने वाले ही फंसते/कूल्हते हैं। क्रिया गमन है, किन्तु प्रतिक्रिया लुढ़कना है। उसकी दशा उस पानी जैसी है, जिसेक भाग्य में नीचे की ओर जाना ही लिखा है। मैं आरोहण के लिए कहूंगा, पर ऊर्ध्वारोहण। करें यात्रा ऊपर की ओर; गंगोत्री की ओर। ___ ऊर्ध्वारोहण की प्रतीक है ज्योति। ज्योति का जन्म शून्य में है और अन्त विराट में। ज्योति हमेशा ऊंचाइयों को छूने का प्रयास करती है और पानी ऊपर चढ़ाये जाने के बावजूद सिर के बल ही गिरता है। ज्योति का व्यक्तित्व चढ़ना है और पानी का आचरण लुढ़कना है। चेतना तो ज्योति स्वरूप है। उसे वह पानी न समझें जो शिखर से पादमूल की ओर बहता है। बहना मुर्दापन है। उसने मुर्देपन के साथ गलबांही कर रखी है। जीवन की जिन्दादिली और जीवन्तता को मात्र इसी में है कि हम बहना नहीं, अपितु तैरना सीखें। जो पानी में बहता है, वह लाचार है। अन्त्येष्टि-संस्कार हो चुका है उसके बाहुबल का। एक मित्र-साधक अपनी अलमस्ती में बैठा है शिखर पर, तरु के नीचे। कहने में भले ही कह दें आसन पर, पर वो बैठा है अपने आप में। भीतर की बैठक में सर्वेक्षण कर रहा है स्वयं का। चालू हो चुकी है.प्रज्ञा की धरा पर परिक्रमा, मंदिर में लगाई जाने वाली फेरीसी, प्रदक्षिणा-सी। पर उसका पांव 'चरैवेति-चरैवेति' का सूत्रधार नहीं है। स्वयं ही कुछ संसार और समाधि 131 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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