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भिक्षाचर्या के लिए निकलने पर पहले ही दिन लोगों ने उसे पत्थरों से मार कर अधमरा कर दिया। जीवन की आखिरी घड़ी में उसने गौतम को अपने पास पाया। वह कृतज्ञ था। मार के बीच भी मुस्कान थी उसके मृत्युंजय चेहरे पर।
गौतम ने उससे पूछा- 'वत्स! तेरा क्या भाव है? अंगुलिमाल ने कहा, भन्ते ! ठहरे हुए का क्या भाव !' __ गौतम बोले- 'पुत्र ! तुम्हें प्रणाम है। तुम्हारा मरण डाकू का नहीं, महा-महोत्सव है अरिहन्त का। तुम निर्वाण पा रहे हो जिन !' ___ जीवन-भर सोयी दशा में पाप कृत्यों का कृतित्व अदा करने वाला व्यक्ति यदि जाग कर छोटे से पुण्य कृत्य को भी अपनी सम्पूर्ण समग्रता से करे, तो निर्वाण की सम्भावना को नकारा नहीं सा सकता। जागृत अवस्था में अन्तरनेत्रों का विमोचन ही ध्यान की भूमिका है। ध्यान है शिवनेत्र। यदि यह न खुले, तो व्यक्तित्व सूरदास है।
जीवन बना हुआ है गलाघोंट संघर्ष और ध्यान है उससे मुक्ति का उपाय। मनुष्य ने भले बुरे विचारों का पर्दा बुना है और वह पर्दा ही उसके लिए घुटन का कारण है। उस पर्दे को उठाने का नाम ही ध्यान है। समाधि है विचारों के पार झांकने की क्षमता। समाधि है शान्ति; विचारों को शान्ति; मन की ऋषिता। इस प्रतिक्रिया एवं संघर्ष-मुक्त स्थिति की प्राप्ति ही जीवन में सम्यक् शान्ति की उपलब्धि है। ___ ध्यान है प्रसाद का क्षण, प्रसन्नता का घुट। यह वैसी ही प्रसन्नता है जैसी बचपन में बच्चे को होती है। अंगूठे को चूसने में, रेती का घरौंदा बनाने में, या बट्ट (पत्थर) बीनने में भी वह प्रसत्र है। उसके अन्तर्जगत में उस स्थिति में न रहता है विचार, न विचारों की उथलपुथल; रहता है सिर्फप्रसाद/आनन्द। ध्यान घटता है प्रसन्नता के क्षणों में। ध्यान सध जाए, तो व्यक्ति रहेगा, जगत् भी रहेगा, उठ जाएगा मात्र विचार का पर्दा दोनों की सन्धि के बीच।
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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