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स्वयं के मार्ग में
जीवन खोने के लिए नहीं है, वरन् कुछ उपलब्ध करने के लिए है। ज्योति बुझे, उससे पहले उसके अस्तित्व की अमर यादगार के पद-चिह्न मंड जाने चाहिए।
जीवन का सम्पूर्ण आभा-मण्डल सत् है। सत् अस्तित्व की विरलतम घटना है। सत्य सत् का ही फैलाव है। सत्य से बढ़कर जीवन कैसा और सत्य से बढ़कर प्यार कैसा? सत्य-से-प्यार जीवन-से-प्यार है। सत्य की अवहेलना स्वयं के प्रति आंख मूंदना है।
सत्य को जीवन में आत्मसात् करने वाला सत् का सच्चा वफादार है। अगवानी चाहे सत् की करो या सत्य की, दोनों एक ही हैं। ऐसा समझें सत् सत्य की नींव है। इसलिए जो कुछ करें, वह सत्य पर आधारित हो, सबका कल्याण करने वाला हो, सुन्दर हो।
सत्य हमेशा मधुर होता है। कड़वाहट का सत्य से क्यावास्ता? कहते हैं सच्ची बात कडवी होती है। यह अतिरेक है। वह सत्य तो असत्य से भी बदतर है,जो दूसरे को कडुवा लगे। कहने का तौर-तरीका सही और सधा हुआ हो, तो कोई भी सच्ची बात तीखी/तीती नहीं लग सकती।
साधक को तो सत्य का रत्ती-रत्ती पालन करना होता है। सत्य से प्यार हो जाये, तो पालन करने की व्यावहारिकता भी नहीं रहती। वह जो कुछ कहता है, जो कुछ करता है, वह सत्य रूप ही होता है। सत्य से हटकर जीवन का अस्तित्व मरियल होगा।
सत्य से बेहद प्रेम होना चाहिए। जहां सत्य है, वहां प्रेम रहता ही है। प्रेम भी सत्य की ही अभिव्यक्ति है। बिना प्रेम के आदमी जंगली है और बिना सत्य के मरघट।
स्वयं की पहचान के लिए सत्य को पहचानना पड़ता है और सत्य को पहचानने के लिए खुद को मेहनत करनी पड़ती है। उन लोगों से भी भरे दिल मोहब्बत करनी पड़ती है, जिन्होंने सत्य को पाया है, स्वयं सत्य रूप हुए हैं। किसी बुझे हुए दीप का ज्योतिर्मय दीप से सम्पर्क ज्योति-बोध के लिए सबसे सही पहल है।
सत्संग का सही रहस्य है। सत्संग सन्त के लिए नहीं, वरन् अपने लिए होता है। शान्त चित्त होकर स्वयं के व्यक्तित्व को मुखर करना है। संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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