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________________ जो व्यक्ति मन में है, वह अधार्मिक है। अधर्म है विभाव-में-रमण, धर्म है स्वभावमें-चरण। मन की हर परिणति स्वभाव के लिए चुनौती है। मन के कर्म-योग के रहते व्यक्ति का अवसरवाद और पाखण्ड नामर्द नहीं हो सकता। ___ अमन है जीवन में सदाबहार चमन करने का राज। सुख-दुःख तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, धूप-छांव का खेल है। जीवन में जरूरत है उस आनन्द की, जिसके प्रास्ताविक से उपसंहारं तक कहीं भी तनाव न हों। जीवन आनन्द के लिए है, नृत्य के लिए है, पुण्यकृत्य के लिए है, तनाव या दम घुटाने के लिए नहीं। __ अमन-दशा में मन की मृत्यु नहीं होती, वरन् मन विलय पा लेता है आत्मा के धरातल पर। मन का देह से जोड़, सारे जहान से मन का चुम्बन जीवन में संसार-निर्माण की आधारशिला है। यदि साक्षित्व-का-सर्वोदय हो जाए तो बिना किसी ननुनच के मन के तादात्म्य का निरोध हो सकता है। कहते है; जंगल से गुजरते समय गौतम की भेंट अंगुलिमाल से हुई। अंगुलिमाल था रक्त-पिपासु हत्यारा और गौतम थे चेतना-के-शिखर। अंगुलिमाल ने गौतम को ललकारा और जिस पगडंडी पर वे चल रहे थे, वहीं ठहरने का निर्देश दिया। गौतम मुस्कुराये और चलते-चलते ही कहा, मैं तो ठहरा हूं, हे निर्देशक! चलना तू बन्द कर! ... गौतम का वक्तव्य प्राणवन्त था, पर अंगुलिमाल के लिए वह उलटबांसी था। चलते राही गौतम स्वयं को रूके हुए बता रहे थे और पहाड़ी की चोटी पर खड़े अंगुलिमाल को चलता हुआ। यह बात तो उसे बाद में समझ में आयी कि व्यक्ति का चलना तो वास्तव में उसी दिन समाप्त हो जाता है, जिस दिन मन की चाल में वैशाखी हाथ से छुट जाती है। ___ गौतम ने कहा- 'अंगुलिमाल ! अपने मन में बहते गन्दे नाले को देख ! मुझ रुके हुए को रुकने को क्यों कह रहा है? जिन कृत्यों से तू जुड़ा है, उन्हें जाग कर परख। कितने भयंकर हो सकते हैं उनके परिणाम ! जीवन मृत्यु की ओर बढ़ने के लिए नहीं; छीनाझपटी और भागदौड़ के लिए नहीं; तनावमुक्त आनन्दमय महाकरुणा के लिए है।' कहते हैं; अंगुलिमाल का दिल बदल गया। वह फर्शाधारी से काषायधारी बन गया। यह एक अभिनव क्रान्ति थी। ___ चूंकि अंगुलिमाल ने हजारों लोगों के घर उजाड़े थे, कितनों की हत्याएं की, इसलिए ठौर-ठौर पर उसके दुश्मन थे। पर साधक को तो मृत्यु के प्रति भी मित्रभाव रहता है। संसार और समाधि 109 --चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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